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पहचान तलाशते नेपाली

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तीन-तीन पीढिय़ों से उत्तराखंड में रह रहे नेपालियों के लिए पहचान पत्र की अनिवार्यता हो जाने से इन लोगों को उठानी पड़ रही है परेशानी

हरिश्चंद्र चंदोला

आजकल बिना पहचान-पत्र के कोई काम नहीं हो सकता। जहां भी आप किसी काम के लिए जाएं, पहचान पत्र साथ लेकर जाएं, लेकिन यह समस्या उत्तराखंड में रहने व काम करने वाले लाखों नेपालियों के लिए बहुत कठिन हो गई है। उनको भी पहचान पत्र बनाना आवश्यक है, चाहे वह राशन कार्ड के लिए हो, गैस-सिलेंडर के लिए, आधार-कार्ड के लिए, बैंक में खाता खोलने या अन्य किसी भी सरकारी काम के लिए।
पहचान पत्र बनाने में नेपालियों के लिए बड़ी कठिनाइयां हो गई हैं। जब वे पहचान पत्र बनवाने के लिए अर्जी देते हैं तो उन्हें यहां के लोगों की भांति अपना मूल स्थान लिखना आवश्यक हो गया है। उसमें एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई है। ज़ो पत्र या फार्म उन्हें भरने को दिया जाता है, उसमें एक प्रश्न उनके मूल स्थान के बारे में होता है। यदि वे अपना मूल-स्थान नेपाल बताते हैं तो उनका भारतीय पहचान पत्र नहीं बन पाता।
पहचान पत्र बनवाने को उन्हें नगर पालिकाओं या ग्रामसभा अध्यक्षों के पास जाना होता है, जो पहचान पत्र बना सकते हैं। कई आजकल उनके दफ्तरों के चक्कर काट रहे हैं, पहचान पत्र बनवाने के लिए। कइयों से कहा जा रहा है कि यदि उनका मूल स्थान नेपाल है तो उनका भारतीय पहचान पत्र कैसे बनाया जा सकता है?
उनमें से कई ऐसे हंै कि जो कई पीढिय़ों से भारत में रहकर काम कर रहे हैं। हजारों नेपाली तीन पीढिय़ों से अधिक समय से इस राज्य में रहकर काम कर रहे हैं। वह यह भी भूल गए कि उनका मूल स्थान नेपाल में कहां था और उनके पूृर्वजों में से कौन भारत में काम करने आया था। उनमें से कोई भी फिर लौटकर नेपाल नहीं जा पाया।
तीन पीढिय़ों से यहां रहकर वे नेपाल में अपना मूल निवास भी भूल चुके हैं। अब पूछने पर वह भला अपना मूल निवास कहां बता पाएंगे? ऐसे में उन लोगों के लिए पहचान पत्र बनाने में बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई है।
इस स्थिति में लाखों नेपाली बिना पहचान पत्र के भारत में रह रहे हैं, लेकिन उनके लिए पहचान पत्र के बिना रहना अत्यंत कठिन हो गया है। उसके बिना राशन कार्ड, गैस कार्ड, बैंक में खाता कुछ नहीं खुल सकता। इस स्थिति में वे क्या करें? नेपाल वापस जाने का भी तो उनके पास कोई रास्ता खुला नहीं है। इस स्थिति में वे क्या करें, क्या न करें वाले दोराहे पर खड़े हैं।
अब तो भारत उनके लिए कर्मभूमि ही नहीं, बल्कि स्थायी भूमि भी है। यहां उनकी आवश्यकता है। उन्हें गांव-शहरों में काम मिल जाता है, जिस पर वे जीविकोपार्जन करते हैं। नेपाल में इस प्रकार का काम नहीं मिलता। मिलता तो वे भारत में रहने क्यों आते?
कुछ नेपालियों ने अपने नामों के साथ गढ़वाली-कुमाऊंनी जातियां जोड़ दिए हैं जैसे बिष्ट तथा राणा इत्यादि। पहचान पत्र बनाते समय जब उनसे पूछा जाता है कि उन्होंने अपने नाम के साथ यहां की जातियां क्यों जोड़ी तो इस पर उनका कहना है कि राणा, बिष्ट इत्यादि जातियां नेपाल में भी होती हैं।
कुल मिलाकर तीन पीढिय़ों के लंबे समय से उत्तराखंड में रहने वाले नेपालियों के लिए पहचान पत्र बनाने का विकल्प तैयार करने की जरूरत महसूस होने लगी है, ताकि उत्तराखंड को ही अपना स्थायी निवास समझने वाले नेपालियों को भी सुविधाओं के साथ ही सम्मान से जीने का हक मिल सके।

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