मामचन्द शाह
उत्तराखंड की त्रिवेंद्र रावत सरकार ने विधायक निधि एक करोड़ और बढ़ाकर जहां विधायकों को खुश करने का काम किया है, वहीं विधायक निधि के प्रत्येक वर्ष खर्च करने की बाध्यता न होने के कारण इस विधायक निधि के पूर्व की भांति चुनाव बूथ निधि बनने की प्रबल संभावनाएं हैं।
उत्तराखंड में विधायक निधि की धनराशि को एक करोड़ बढ़ाकर अब पौने चार करोड़ कर दिया गया है। हालांकि इससे भी कुछ विधायकों का मन नहीं भरा और वे इस निधि को चार करोड़ करने के पक्ष में हैं। वहीं कुछ विधायक ऐसे भी हैं, जो अपनी निधि का 50 प्रतिशत भी खर्च नहीं कर पाते और चुनाव से ठीक पहले इस निधि को मनमाने तरीके से ठिकाने लगा देते हैं। प्रदेश की भाजपा सरकार ने बीते बजट सत्र में विधायक निधि में एक करोड़ रुपए का इजाफा कर माननीयों की मुस्कान बढ़ा दी है। उत्तराखंड में 71 विधायक हैं। इसमें एक मनोनीत भी शामिल है।
सर्वविदित है कि विधायक निधि का पैसा माननीय चुनावी मेले से ठीक पहले खर्च करने में अधिक विश्वास करते हैं। दिसंबर 2016 तक प्राप्त उपरोक्त आंकड़ों से प्रतीत होता है कि कई विधायकों ने 50 या फिर 60 प्रतिशत से कम विधायक निधि खर्च कर खूब कंजूसी दिखाई। माननीय की मंशा थी कि चुनाव से पहले ही विधायक निधि को मंडुवे की तरह बिखेरकर वोट बैंक की अत्यधिक उपजाऊ फसल काटी जा सकती है। सरकार ने विधायकों को तीन लाख तक के कार्य बिना निविदा/टेंडर के आवंटित करने की छूट दी है। हालांकि अधिकांश विधायकों का रुझान बिना टेंडर निधि आवंटन में साफ दिखाई देता है।
विधायक निधि का अधिकांश हिस्सा माननीय अपने विवेक के आधार पर आवंटित करते हैं। ऐसे में यह भी तय हो जाता है कि निधि से उक्त निर्माण कार्य विधायक के फलां चहेते द्वारा कार्य किया जाएगा। गौरतलब है कि विभिन्न क्षेत्रों में अक्सर देखा जाता है कि प्रत्येक निर्माण कार्यों का ठेका माननीयों के चमचे टाइप ठेकेदारों को ही दिया जाता है। कार्यों में मनमर्जी चलाने वाले ठेकेदारों के खिलाफ कभीकभार लोगों की नाराजगी भी उजागर होती है, किंतु ऊंची पहुंच रखने वाले ठेकेदारों के आगे उनकी नहीं चल पाती है। ऐसे में विधायक निधि से होने वाले कार्य को औपचारिक रूप से पूर्ण कर दिया जाता है।
यही नहीं विधायक निधि का इस्तेमाल किसी महत्वपूर्ण विकास कार्य की बजाय धार्मिक भावनाएं भुनाने के लिए मंदिर जीर्णोद्धार, सौंदर्यीकरण या मंदिरों में झामण लगाने के लिए भी खूब किया जाता है। इसके पीछे भी आम जनता की भावनाओं से खेल कर उनके हिस्से का विकास छीन लिया जाता है। काशीपुर निवासी नदीमउद्दीन ने आरटीआई में वर्ष 2012 से विधायक निधि के खर्च का विवरण मांगा। इस पर उन्हें सितंबर 2016 तक के विवरण में बताया गया कि विधायक ममता राकेश ने कुल 35 प्रतिशत, मुख्यमंत्री हरीश रावत ने 41 प्रतिशत, अजय भट्ट 51, मदन बिष्ट 53, गोविंद सिंह कुंजवाल 56 प्रतिशत थे। हालंकि इन्हीं माननीयों ने चुनाव से ऐन पहले थोड़ी सी फुर्ती दिखाई और ममता राकेश 43 प्रतिशत, हरीश रावत 46, अजय भट्ट 55 तथा गोविंद सिंह कुंजवाल 62 प्रतिशत विधायक निधि खर्च की।विधानसभा चुनाव 2017 से ठीक पहले प्रदेश में विधायक निधि की 25 परसेंट यानि 224 करोड़ 44 लाख 95 हजार रुपए खर्च नहीं हो पाए थे।
सवाल यह है कि जब माननीय निधि खर्च करने में इतनी ही कंजूसी कर रहे हैं तो फिर उनकी इस निधि को बढ़ाने का औचित्य ही क्या है? पिछली सरकार में वित्त विभाग ने यह शासनादेश निकाला था कि प्रत्येक वित्तीय वर्ष के बाद विधायकों की कुल विधायक निधि का २०% अगले वित्त में शामिल की जाएगी, शेष लैप्स हो जाएगी। इसने लगभग सभी विधायकों को थोड़ा सक्रिय तो किया, लेकिन बाद में हरीश रावत ने यह शासनादेश विधायकों के दबाव में वापस ले लिया।
कुल मिलाकर विधायक निधि को विकास कार्यों में लगाने के बजाय इसका दुरुपयोग कमीशनखोरी, कार्यकर्ताओं में बांटने या धार्मिक कार्यों में किया जाता है। फिर भी पूरी निधि खर्च नहीं हो पाती। ऐसे में विकास की इस निधि पर पांच वर्षों तक कुंडली मारकर बैठे रहने के बाद चुनाव से ठीक पहले माननीयों द्वारा दिल खोलकर खर्च किए जाने को विकास नहीं, आम जन के साथ कुठाराघात ही कहा जाएगा!
बहुगुणा का आदेश पलटा हरीश रावत ने
विजय बहुगुणा के मुख्यमंत्री रहते तत्कालीन सचिव विनोद फोनिया की पहल पर प्रत्येक वर्ष विधायक निधि को 80 प्रतिशत खर्च करने का प्रावधान कर दिया गया था और सिर्फ 20 प्रतिशत को ही अगले वर्ष खर्च करने की ढील दी गई थी, किंतु हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनते ही खर्च करने की यह बाध्यता समाप्त कर दी गई। परिणामस्वरूप विधायकों ने इस निधि को चुनावी निधि के रूप में प्रयोग करना शुरू कर दिया।