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…और बिखर गया पहाड़ी मंडुवा!

April 4, 2017
in पर्वतजन
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अपनी कार्यशैली के कारण लोकप्रिय मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपना राज-पाट अपने ही हाथों गंवा दिया। उत्तराखंड की उम्मीद बन चुके हरीश रावत की हार का एक विश्लेषण

मामचन्द शाह

चुनाव परिणाम आने के बाद उत्तराखंड में हरीश रावत का बहुचर्चित डायलॉग व्हाट्स एप व सोशल साइटों के साथ ही गली-मौहल्लों में लोगों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है कि ‘पहाड़ी मंडुवाÓ उत्तराखंड के पहाड़ों से लेकर मैदान तक बुरी तरह बिखर गया। यही नहीं सचिवालय एवं विधानसभा के गलियारों में भी इस डायलॉग पर अधिकारी-कर्मचारी खूब चुटकियां ले रहे हंै।
दरअसल चुनाव से ऐन पहले अति आत्मविश्वास से लवरेज होने का दिखावा कर रहे मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपने विरोधी दलों व पार्टी के भितरघातियों को चिढ़ाने वाले अंदाज में कह दिया था कि ”मैं पहाड़ी मंडुवा हूं, जितना कूटोगे, उतना निखरूंगा।” तब अगले दिन यह बात सभी अखबारों की सुर्खियां बन गई थी। संभवत: इसी डायलॉग के भरोसे वह चुनाव मैदान में कांग्रेस की नैय्या पार लगाने की कोशिश करते रहे, लेकिन जब चुनाव परिणाम आया तो खोदा पहाड़, निकली चुहिया वाली कहावत बारह आने सही साबित हुई।
पहाड़ी मंडुवा यूं तो स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होता है, किंतु विधानसभा चुनाव २०१७ के बाद यह पहाड़ी मंडुवा (हरीश रावत) ‘निखरनेÓ की बजाय बुरी तरह ‘बिखरकर” कांग्रेस को ऐसे चौराहे पर खड़ा कर गया कि आने वाले वर्षों में पार्टी को अपनी नींव के पत्थरों को नए सिरे से दुरुस्त करने लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।

पहले भी हारे हैं सीएम रहते हुए प्रत्याशी

ऐसा भी नहीं हैं कि मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए हरीश रावत पहले ऐसे प्रत्याशी हों, जो उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव हारे हों, लेकिन जिस तरह उनका आत्मविश्वास देखा जा रहा था, उसके अनुसार प्रदेश में कम से कम कांग्रेस के 1५-2२ सीटें आने की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन वह इस पर धड़ाम हो गए और पहाड़ी मंडुवा उत्तराखंड के पहाड़ों से लेकर मैदान में भी बुरी तरह बिखर गया।
हरीश रावत से पहले वर्ष २००२ में मुख्यमंत्री पद पर रहने के बाद नित्यानंद स्वामी चुनाव हार गए थे। उसके बाद एनडी तिवारी ने चुनाव नहीं लड़ा। भुवनचंद्र खंडूड़ी भी वर्ष २०१२ में सीएम पद पर रहते हुए कोटद्वार से चुनाव हार चुके हैं। यदि तब वह चुनाव जीतने में सफल हो पाते तो शायद कांग्रेस की बजाय उत्तराखंड में भाजपा की सरकार ही बनती। इनसे चार कदम आगे सीएम हरीश रावत यह परंपरा कायम रखते हुए एक नहीं, बल्कि हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा दो-दो सीटों से चुनाव हारने का नया कीर्तिमान स्थापित करने में सफल रहे।
पुराने रिकार्ड के अनुसार सीएम पद पर रहते हुए चुनाव हारने की बात तो प्रदेशवासियों की समझ में आती है, लेकिन उनके लगभग सभी दिग्गज और अधिकांश सिपाही जिस तरह से चुनाव में चित हो गए, उनका पूरा श्रेय हरीश रावत को ही जाता है।

वन मैन आर्मी बने

प्रदेश में विधानसभा चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही कांग्रेस ने भी जनवरी के शुरुआत में अपना चुनाव अभियान शुरू किया। कांग्रेस संगठन को तब बड़ा झटका लगा, जब उसके चुनावी रथों पर प्रदेश अध्यक्ष व अन्य बड़े नेताओं की फोटो को स्थान देने की बजाय केवल हरीश रावत की फोटो को ही तरजीह दी गई। तब उनकी बहुत आलोचना हुई थी कि वे वन मैन आर्मी बनकर चुनाव नहीं जीत सकते हैं, लेकिन किसी की बात पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। कई मर्तबा प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्यक्ष ने भी उन्हें चेताने की कोशिश की पर उन्होंने उपाध्याय की भी एक नहीं सुनी।

पीके ने ली फिरकी

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पीके के नाम से मशहूर प्रशांत किशोर को उत्तराखंड कांग्रेस ने चुनाव प्रचार की कमान सौंपी। इससे लग रहा था कि कांग्रेस को इससे बहुत फायदा होगा, लेकिन धरातल पर प्रचार करने की बजाय पीके ने सोशल साइट का सहारा लिया और बाहुबली फिल्म की तर्ज पर हरीश रावत को बाहुबली दिखाते हुए पीएम मोदी को फटकारते हुए दिखाया गया। इससे कांग्रेस जनों में भी उत्साह का संचार जरूर हुआ, लेकिन जब मीडिया ने कांग्रेस से पूछा कि क्या कांग्रेस हरदा को बाहुबली के रूप में प्रचारित कर रही है तो वह इससे पीछे हट गई। इसके अलावा पीएम मोदी को बाहुबली हरदा द्वारा पटखनी देने वाले वीडियो से भी प्रदेशवासी कांग्रेस से खफा हो गए और प्रमुख विपक्षी दल भाजपा को इसका बड़ा फायदा हुआ।

स्टार प्रचारकों का अभाव

सभी बड़े दिग्गज नेताओं के भाजपा में चले जाने के बाद कांग्रेस के सामने इस बार स्टार प्रचारकों का अकाल पड़ा दिखाई दिया। यही कारण था कि कांग्रेस के प्रचारकों की सूची में जिले स्तर के कई छुटभैये नेता भी शामिल किए गए। इसके विपरीत राजबब्बर की फिल्मी सैलिब्रिटी वाला रसूख अभी भी चुका नहीं है। राजनैतिक रैलियों में वह आज भी भीड़ खींचने का माद्दा रखते हैं। वहीं दूसरी ओर चुटीली व शायराना अंदाज में मनोरंजक ढंग से तगड़े राजनीतिक तंज कसने वाले नवजोत सिंह सिद्धू की तो बाकायदा कांग्रेसी नेताओं ने भी उत्तराखंड में काफी डिमांड की थी, किंतु उनके पंजाब में व्यस्त होने तथा उत्तराखंड के प्रादेशिक नेतृत्व द्वारा उन्हें बुलाने में कोई रुचि न लेने के कारण राजबब्बर उत्तर प्रदेश की गलियों की खाक छानने में व्यस्त रहे तो सिद्धू पंजाब से बाहर नहीं निकल पाए। इसका नुकसान भी उत्तराखंड कांग्रेस को ही झेलना पड़ा।

बड़े नेताओं को निपटाया

मार्च २०१६ में हुए उत्तराखंड में बड़े राजनीतिक घटनाक्रम के दौरान कांग्रेस से खफा होकर नौ दिग्गज नेता भाजपा में शामिल हो गए थे। हरीश रावत पर उन्होंने अपनी बात नहीं सुनने का आरोप लगाया था। इससे पहले वर्ष २०१४ के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले तत्कालीन कांग्रेसी धुरंधर सतपाल महाराज भाजपा में शामिल हो गए थे। हालांकि तत्कालीन काबीना मंत्री यशपाल आर्य स्थिर सरकार बनाए रखने में लगातार कांग्रेस सरकार का सहयोग करते रहे, लेकिन जब उनकी बातों को भी हरीश रावत ने तवज्जो देना बंद कर दिया तो उन्होंने कांग्रेस का हाथ छोड़कर भाजपा का साथ जाने का मन बना लिया और चुनाव से ठीक पहले अपने पुत्र संजीव आर्य और समर्थकों सहित भाजपा में शामिल हो गए। कांग्रेस की एक और विधायक रेखा आर्य भी कांग्रेस छोड़ भाजपा में चली गई। इस तरह सभी दिग्गज नेताओं को निपटाने के बाद कांग्रेस मुखिया हरदा के सिपाही इस चुनाव में ताश के पत्तों की तरह बिखर गए।

भत्ता कार्ड से बिदका बेरोजगार वोट बैंक

दरअसल बेरोजगार भत्ता की शुरुआत कांग्रेस सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने की थी, लेकिन बाद में हरीश रावत सीएम बने और उन्होंने बेरोजगारी भत्ता बंद करवा दिया। जब प्रदेश में विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान आचार संहिता चल रही थी तो हरदा ने एक बार फिर बेरोजगारी भत्ता कार्ड बांटकर बेरोजगार युवाओं का वोट बैंक अपने पक्ष में करने का प्रयास किया, किंतु उनकी

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इस चाल से प्रदेशभर के बेरोजगार बिदक गए और यह दांव हरीश रावत को उल्टा पड़ गया। चुनाव के दौरान भत्ता कार्ड बांटने के मामले में पौड़ी गढ़वाल निवासी बेरोजगार रणवीर सिंह ने हरीश रावत पर बेरोजगारों की भावनाओं को छलने का आरोप भी लगाया था।

डेनिस से रूठे सुरा प्रेमी

वर्ष २०१६-१७ में जब शराब ठेकों की टेंडरिंग हुई तो कांग्रेस सरकार ने सर्वाधिक पसंद किए जाने शराब के ब्रांडों को गायब करवाकर डेनिस नाम की नई ब्रांड की शराब उपलब्ध करवा दी। इस शराब से सुरा पे्रमी खासे खफा दिखाई दिए। इसके अलावा लोगों को जहां महंगी शराब खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ा, वहीं स्वास्थ्य के लिहाज से भी इस ब्रांड की खूब आलोचना हुई। जाहिर है कि सुरा प्रेमियों की नाराजगी का खामियाजा भी कांग्रेस को ही भुगतना पड़ा।

हैलो यूके का दांव पड़ा उल्टा

गत वर्ष उत्तराखंड में आए राजनीतिक भूचाल के सामान्य हो जाने के बाद गढ़वाली में ‘हैलो यूकेÓ नाम से एक फिल्म रिलीज करवाई गई। उस फिल्म को देखकर दर्शकों को तब बड़ा झटका लगा, जब उसमें तत्कालीन राजनैतिक घटनाक्रम को केवल एकतरफा दिखाते हुए विरोधियों को भ्रष्टाचार में डूबे हुए, जबकि हरीश रावत को ईमानदार छवि वाला सीएम दिखाया गया था। फिल्म देखने वालों को तब यह समझने में कतई देर नहीं लगी कि यह एक सोची-समझी रणनीति के तहत विधानसभा चुनाव फतह करने के उद्देश्य से बनाई गई गढ़वाली फिल्म है। इस तरह हैलो यूके का दांव भी कांग्रेस और सीएम हरीश रावत के काम नहीं आ सका। इसके अलावा उन्होंने जब विशेष समुदाय को नमाज पढऩे के दौरान सरकारी कर्मचारियों को विशेष छुट्टी देने की घोषणा की तो इससे प्रदेशभर में भारी उबाल आ गया। हालांकि नजाकत को भांपते सीएम ने अपने फैसले पर शीघ्र पलटी मार दी, लेकिन लोगों के मन में इससे जो संदेश गया, उसका रिजल्ट विधानसभा चुनाव में साफ हो गया।
कुल मिलाकर ऐसे तमाम कारण थे, जिससे पहाड़ी मंडुवा बिखर गया और इसी के साथ कांग्रेस के पुन: सरकार बनाने के अरमानों पर भी पानी फिर गया।


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