उत्तराखंड सरकार देशभर में जगह-जगह फंसे हुए प्रवासी उत्तराखंडियों को रजिस्ट्रेशन के नाम पर लाये लप्पा ही देती रह गई और इधर केंद्र सरकार की नई संंशोधित गाइडलाइन आने के बाद डेढ़ लाख प्रवासियों की उम्मीदों को झटका लग गया है।
प्रारंभ से ही प्रवासियों को वापस लाने की अनिच्छुक त्रिवेंद्र सरकार पर जब दबाव बढ़ा तो उन्होंने 18 हेल्पलाइन नंबर जारी कर दिए थे और पंजीकरण के लिए लिंक भी जारी कर दिए थे लेकिन इन नंबरों पर या तो किसी ने फोन नहीं उठाया या फिर यह स्विच ऑफ ही चलते रहे।
पंजीकरण के लिंक से भी लोगों की यही शिकायत रही कि यह खुलता ही नहीं है, इसके बावजूद लगभग डेढ़ लाख लोग पंजीकरण कराने में सफल रहे। सरकार ने इसे अपनी उपलब्धि के तौर पर भी गिनाना शुरू कर दिया।
लेकिन प्रवासियों की उम्मीदों को तब झटका लग गया जब सरकार की लेटलतीफी के कारण अब केवल राहत कैंपों या रास्तों में फंसे 10% लोग ही उत्तराखंड आ पाएंगे।
अब रजिस्ट्रेशन करा चुके लोग मायूस हो गए हैं और इसके लिए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को कोस रहे हैं।
इसके अलावा जो लोग उत्तराखंड आ चुके हैं, उनको जिला स्तरीय राहत कैंप में क्वारंटाइन न करके अपनी जिम्मेदारी को प्रधानों के कंधों पर डाल देने से भी ग्रामीणों में आक्रोश देखा जा रहा है।
एक गांव में सभी लोग एक दूसरे को जानते हैं और आपस में नाते रिश्तेदार होते हैं।
इस पर कोई भी किसी से कुछ रोका टाकी करके आपस में एक दूसरे का बुरा नहीं बनना चाहेगा। किंतु सरकार ने और जिला अधिकारियों ने अपने पाले की गेंद ग्राम प्रधानों के पाले में धकेल कर भले ही अपनी जिम्मेदारी से बच गए हैं, लेकिन प्रवासियों को इस तरह कोरनटाइन करने से संक्रमण का खतरा काफी बढ़ गया है।
इनको पंचायतों अथवा स्कूल भवनों में क्वॉरेंटाइन करने से भी सबसे बड़ी समस्या यह है कि उत्तराखंड के अधिकांश पंचायत भवनों तथा स्कूल भवनों में शौचालय की व्यवस्था नहीं है अथवा पानी की व्यवस्था नहीं है तथा खाने की व्यवस्था भी अभी तक तय नहीं हो पाई है कि यह किसके द्वारा की जाएगी।
यदि एक ही टॉयलेट को 20 लोग भी इस्तेमाल करेंगे तो इससे संक्रमण का खतरा और बढ़ जाएगा।
प्रवासियों को समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर सरकारों ने पीएम केयर्स में दिया गया दान तथा मुख्यमंत्री राहत कोष में दिया गया दान आखिर किस काम में इस्तेमाल किया है ! लोग इसके सत्यापन की मांग भी अभी से उठाने लगे हैं