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वह पलायन पर भाषण से नहीं, राशन से वार करना सिखाता है!

August 27, 2017
in पर्वतजन
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जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’//

महेंद्र कुवँर ने ग्रामीणों को उद्यान,कृषि,और स्वरोजगार के साथ ही संगठित मार्केटिंग का ऐसा फ़ंडा सिखाया कि सरकारें  और सरकारी विभाग भी उन इलाकों को “जीरो पलायन जोन” बताते हुए उनका उदाहरण देते नही थकती!!

पहाड़ की खेती उद्यानिकी को सर सब्ज कर पलायन को समाप्त करने के मिशन मे आज जो सबसे बड़ा काम महेन्द्र कुंवर नाम का शख्स कर रहा है, ऐसे हमारे राज्य में विरले ही उदाहरण है। थोडी पीछे चलते है। चमोली गढ़वाल का एक गांव है कांसवा, कभी गढ़वाल की राजधानी रही आदि बद्री मन्दिर समूह के निकट चांदपुर गढ़ी के ठीक सामने व आटा गाड नदी के उस पार गढ़राज्य वंश के कुछ परिवारों का गांव कांसवा पूरे राज्य का प्रसिद्ध गांव है। कांसवा के कुंवर ही नन्दा राज यात्रा के मुख्य अधिष्ठाता भी है। महेन्द्र कुंवर इसी गांव के मूल निवासी है। पिता सेना में होने के कारण इन्हे भी उनके साथ कई स्थानों पर स्थानान्तिरित होकर अपना अध्य्यन करना पड़ा। हाईस्कूल, इण्टरमीडिएट पिथौरागढ़ के बाद उच्च शिक्षा के लिए राजकीय महाविद्यालय गोपेश्वर में विज्ञान के छात्र बने। खेल के प्रति अत्यधिक अभिरूचि थी। क्रिकेट में विश्वविद्यालय के प्रमुख खिलाड़ी के रूप में खूब ख्याति मिली। यहीं गोपेश्वर में प्रसिद्ध पर्यावरणाविद् व चिपको आन्दोलन के प्रमुख नेता चण्डीप्रसाद भट्ट जी का सानिध्य मिला व पर्यावरण संरक्षण आन्दोलन के युवा कार्यकर्ता बन गये। अनेकों पदयात्राओं में शामिल रहे व महिलाओं-युवाओं को संगठित करने का कार्य किया। अध्य्यन के लिए एक बार फिर स्थान परिवर्तन हुआ और श्रीनगर विश्वविद्यालय के मुख्य कैम्पस में भूगर्भ विज्ञान के छात्र थे। यहां आकर भी अपने सामाजिक परोकारों को नहीं छोड़ा व मित्रों के साथ मिलकर ‘‘डाल्यों का दगड़या ‘‘संगठन की स्थापना की जो आज भी विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं व अध्यापकों का एक सक्रिय संगठन है जो अध्य्यनरत छात्रों में पर्यावरण संरक्षण की अलख जगाता रहता है। चिपको से शुरू हुआ महेन्द्र कुुंवर का अभियान अब और जमीनी अनुभव लेने के लिए उतावला था। उन्ही दिनों देश के प्रसिद्ध पर्यावरण, चिन्तक, लेखक, पत्रकार व संपादक श्री अनिल अग्रवाल सेन्टर फाॅर साइंस एण्ड इन्वायरनमेण्ट संस्था व डाउन टु अर्थ पत्रिका के तहत पीपलकोठी के सामने दूरस्थ गांव बिमरू में पारिस्थितिक अध्ययन करना चाहते थे। अनिल अग्रवाल को पर्यावरणीय सामाजिक व वानस्थितिक अध्ययन के लिए कुछ युवाओं की जरूरत भी जो सामाजिक परोपकारों से जुड़े हों व बिमरू जैसे गांव में रहकर अध्य्यन कर सके। महेन्द्र कुंवर इस कार्य हेतु चुन लिये गये। साथ ही हेम गैरोला पूरन वत्वील भी इस अध्ययन में शामिल हो गये। गैरोला व वत्वील जी आज भी उत्तराखंड के सामाजिक क्षेत्र के प्रतिष्ठित नाम है।

बिमरू गांव का अध्ययन पर्वतीय क्षेत्रों के पर्यावरणीय अध्ययन की भविष्य की बुनियाद बना। स्व. श्री अनिल अग्रवाल व उनकी संस्था आज भी देश की प्रतिष्ठ पर्यावरणीय अध्ययन संस्था है। जो देश में इस दिशा में अलख जगाये है।

खैर यह जुड़ाव यहीं एक सीमित नहीं रहा। युवा महेन्द्र कुंवर व हेम गैरोला ने सी.एस.ई. के साथ जुड़कर पूरे देश में अनेकों अध्ययन कार्यों को अंजाम दिया। कुछ वर्षों कार्य करने के पश्चात महेन्द्र कुंवर को लगा कि उन्हे जमीन से जुड़कर अपने पर्वतीय क्षेत्र के लिए कार्य करना चाहिए। यह भावना व पहाड़ प्रेम उन्हे अपनी जन्मभूमि की ओर खींचकर ले आया। संकल्प था कि हिमालय के पहाड़ों की पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुकूल विकास की अवधारणा पर न सिर्फ अध्ययन, चिन्तन, मनन व शोध करना वल्कि एक ठोस विकल्प तैयार करना। अपने साथियों की मदद से ‘‘हिमालय एक्सन रिसर्च सेण्टर हार्क’’ की स्थापना की और काम पर जुट गये। वर्ष था 1988। सबसे पहले जल संरक्षण के कार्याें की शुरूआत की गई। पहाड़ों में वर्षा व प्राकृतिक जल श्रोतों के पानी को एकत्र करने के लिए सैकड़ों पाॅलीथीन, टैंकों का निर्माण किया व अब इस जल का उपयोग कहां किया जाये तो कृषि व उद्यान कार्य सामने आये। पाॅलीटैंक, पालीहाउस के माध्यम से सब्जी व फूलों का उत्पादन ग्रामीणों के लिए एक नया अनुभव था।

प्रशिक्षण शिक्षण कार्यों हेतु वाईएस परमार विश्वविद्यालय हिमाचल से मदद ली गई। हिमाचल प्रदेश के इस क्षेत्र में किये गये उल्लेखनीय कार्यों का उत्तराखंड में सही मायने में अवतरण का कार्य महेन्द्र कुंवर की देन है। इस हेतु कुंवर ने यमुना घाटी का चुनाव किया जो भौगोलिक दृष्टि, पारिस्थितिकी व पर्यावरणीय दृष्टि के साथ-साथ सांस्कृतिक रूप से मिलता-जुलता क्षेत्र था। उत्तरकाशी की यमुनाघाटी के पुरोला में किसानों के शिक्षण प्रशिक्षण के लिए एक केन्द्र की स्थापना की गई।

यमुनाघाटी अपने लाल धान व कृषि के लिए प्रसिद्ध थी लेकिन फल व सब्जी उत्पादन में अभी लोगों में हिमाचल जैसी जागरूकता व ज्ञान का अभाव था। किसान कम पढ़े-लिखे व आर्थिक रूप से कमजोर थे। परम्परागत खेती व पशुपालन की मुख्य आजीविका का साधन था।

अवनी संस्था हार्क व उसके स्वयं सेवियों ने सर्वप्रथम कृषि व पर्यावरण का गांव-गांव जाकर अध्य्यन किया। किसानों व महिलाओं को संगठित कर उनके शिक्षण-प्रशिक्षण पर जोर देकर आधुनिक तकनीकी व वैज्ञानिक कृषि कार्यों से ग्रामीणों को जोड़ा। 2-3 साल सिर्फ अध्ययन व संगठन निर्माण में ही गुजर गये, लेकिन चौथे साल जब परिणाम आये तो चैंकाने वाले थे।

किसानों के खेतों में टमाटर, वीन्स, मटर, राजमा, मौसमी सब्जियों  की पैदावार बढ़ गई है। अब उत्पादन शुरू तो हो गया लेकिन उसे बेचें कैसे। इसका दुष्परिणाम यह रहा कि बिचौलियों ने औने-पौने दाम पर उत्पाद खरीद लिया। कई किसानों के उत्पाद सही समय न रहने पर खराब हो गये। यह बात महेन्द्र कुंवर के लिए एक बड़ी चिन्ता बन गई। किसानों के उत्साह ने जहां उनका मनोबल बढ़ाया वहीं किसानों को वास्तविक लाभ न मिल पाना कुवंर के दिल पर बोझ बन गया।

उन्होने तुरन्त इस पर कार्य शुरू करने के लिए क्षेत्र में विशेषज्ञों के साथ मिलकर अनेकों गोष्ठियों का आयोजन किया। निर्णय लिया गया कि ग्रामीण स्तर के संगठनों का बड़े स्तर पर सहकारिता समूहों का गठन किया जाये जो कि किसानों के उत्पादों को बेचने का कार्य करें व किसान को घर पर ही पैसा मिल जायें।

दूसरी ओर देहरादून, हिमाचल व दिल्ली की आजादपुर मण्डी के साथ सम्पर्क कर एक व्यापार चैन तैयार कर ली गई। महेन्द्र कुंवर ने यमुना व टोंस घाटी के किसानों की कृषि व्यवस्था में एक बड़ा बदलाव ला दिया व किसानों की बीज, उपकरण व प्रशिक्षण के लिए नौगांव केन्द्र को सुसज्जित कर लिया। आखिर सफलता को हाथ लगना ही था। यमुना घाटी में हार्क के माध्यम से किये गये कार्यों का परिणाम आज हर कोई जानता है।

यमुनाघाटी के किसान आज हर साल करोंड़ो रूपये का कृषि व्यापार कर अपनी आर्थिकी में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल कर चुके है। ज्ञात हो कि उत्तराखंड राज्य में अगर कहीं सबसे कम पलायन है तो वह यमुना घाटी में ही है। इसके पीछे एक बड़ा योगदान महेन्द्र कुंवर का भी है। यमुनाघाटी में सहकारिता आन्दोलन से आर्थिकी को मजबूत किये जाने के बाद अब महेन्द्र कुंवर ने राज्य के अन्य क्षेत्रों में भी यमुना घाटी के अनुभवों को बांटने का दूसरा बीड़ा उठाया। जनपद था चमोली गढ़वाल।

क्षेत्र के अनुभव व अध्ययन से पता चला कि चमोली क्षेत्र माल्टा व नींबू प्रजाति के फलों के लिए एक आदर्श क्षेत्र है। यहां भी महिलाओं को संगठित कर छोटे-छोटे संगठन बनाकर सहकारिता संस्थाओं का गठन किया गया। कर्णप्रयाग के निकट कालेश्वर में फल प्रसंस्करण फैक्ट्री की स्थापना की गई। फलों के उद्यान, वैज्ञानिक प्रशिक्षण, क्षेत्रीय भ्रमण से पहले जमीन तैयार की गई। माल्टा से ग्रामीणों को अपेक्षित लाभ न होने के कारण वे माल्टा के बगीचों को उपेक्षित छोड़ रहे थे। प्रत्येक ग्रामीण को पुनः इा हेतु तैयार किया गया। नये किसान, नई नर्सरियां व नये बगीचे तैयार किये गये। सहकारी संगठन बनाये गये व उन्हें सक्रिय किया गया। गैरसैण, मन्दाकिनी व अलकनन्दा, पिण्डर घाटी के साथ-साथ पौड़ी जनपद के माल्टा उत्पादन वाले क्षेत्रों का फैक्ट्री में जोड़ा गया। महेन्द्र कुवंर यहां फूंक-फूंक कर कदम उठा रहे थे। पूरे व्यापार की चैन बना ली गई व कालेश्वर की फैक्ट्री में शीघ्र की उत्पादन कार्य शुरू हो गया। न सिर्फ माल्टा बल्कि नींबू, गलगल, बुंराश, तुलसी, अदरक आदि के उत्पादों को तैयार किया गया। उल्लेखनीय बात यह रही कि सहकारिता के संगठन से लेकर फैक्ट्री में मशीनों के संचालन, गुणवत्ता , पैकिंग आदि कार्य महिलाओं के द्वारा सम्पादित किये जा रहे है।

महेन्द्र कुंवर का मानना है कि अधिकांश रूप से इस प्रकार के प्रयोग इसलिए सफल नहीं हो पाते थे कि किसानों को बाजार से नहीं जोड़ा जाता था।इसलिए उसमें सफलता नहीं मिल पाती थी। इसलिए मैंने जमीन पर किसानों को जोड़ने के साथ-साथ बाजार से जोड़ने को ही वक्त प्राथमिकता दी। महेन्द्र कुंवर अपनी उपलब्धियों के बखान में विश्वास नहीं करते वे एक साधक के रूप में पलायन शब्द की परिभाषा को बदलने का संकल्प लिये हुए है।

अपने संगठन हार्क के माध्यम से कुंवर ने उत्तराखंड को अनेक नये सामाजिक उद्यमी, वैज्ञानिक, सफल किसान व छोटे-छोटे संगठनों की सौगात दी है। प्रसिद्ध पत्रकार क्रान्ति भट्ट कहते है कि ‘‘भाषण व निठल्ले चिन्तन से दूर असल अर्थों में जमीन पर कई लोगों को खेती में जोड़कर आत्मनिर्भर जीवन बनाने में समर्पित व्यक्तित्व व साधक का नाम महेन्द्र कुंवर है। वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत कहते है कि वे न सिर्फ साधक बल्कि हिमालय के सत्त व जागरूक अध्येता भी है।

समाज मे महेन्द्र कुवँर जैसे कई और  लोग होंगे जिन्हें आप जानते हैं तो ऐसे कर्मयोगी की तरह अगर कोई आपकी नजर मे है तो हमे भी बताइए ताकि समाज प्रेरणा पा सके।प्रोत्साहित हो सके।यह प्रेरणा प्रसंग हमे अच्छा लगा तो हमने आप तक पहुंचाया। आपको अच्छा लगे तो इसे शेयर जरूर कीजिये।


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