शिव प्रसाद सेमवाल
यूं तो लंका में सभी ५२ गज के होते हैं, लेकिन कभी-
कभी देवभूमि में भी बड़े कद के महानुभाव किसी अज्ञात अर्थ के आकर्षण में आ जाते हैं। अभी उत्तराखंड में कुछ ही दिनों पहले राका का डाका पड़ा है। अब और झेलने की मुद्रा में शायद यहां के लोग नहीं हैं। कुछ लोग होते हैं, जो अपने पद और कद से भी अधिक क्षमता और योग्यता वाले काम करने में माहिर होते हैं। मृत्युंंजय मिश्रा भी ऐसे ही कद के अफसर हैं। आधे दर्जन से अधिक केंद्रीय मंत्रियों से सीधे संपर्क वाले मिश्रा अपनी पहुंच की बदौलत भले ही नई-नई बन रही यूनिवर्सिटियों में आने वाली कई तरह की आर्थिक और मान्यता संबंधी दिक्कतों को चुटकियों में दूर करने के लिए अपने उच्चाधिकारियों के चहेते रहे हैं, किंतु इन विश्वविद्यालयों में परीक्षाओं, खरीदों और भर्तियों को लेकर उठने वाले बवाल में कुलसचिव मिश्रा ही सवालों के घेरे में रहते आए हैं।
मिश्रा के बारे में एक बहुत ही दिलचस्प बात सत्ता के गलियारों में कही जाती है कि वह बहुत अच्छे मैनेजर हैं। अपने काम के लिए सीढ़ी लगाना और काम होने के बाद सीढ़ी खिसका लेना उन्हें बहुत अच्छे से आता है। जिनकी सीढ़ी खिसकती है, वह खिसियाते हुए मिश्रा के पीछे पड़ जाते हैं, लेकिन तब तक मिश्रा आगे निकलकर कहीं और सीढ़ी लगा रहे होते हंै।
उत्तराखंड थोड़ा धीमे मिजाज का प्रदेश है। यहां तेज चाल वालों को अक्सर लंगड़ी लगा दी जाती है। मिश्रा के घपले-घोटाले चाहे कितने भी हों, वह अपने घोटालों को लेकर नहीं, बल्कि तेज चाल को लेकर निशाने पर हैं। उन्हें निशाने पर लेने वाले भौंचक हैं कि इतनी जल्दी राजनीतिक विज्ञान का कोई प्रोफेसर कैसे दो-दो विश्वविद्यालयों की मलाईदार कुर्सी हथिया सकता है। कुछ गलतियां मिश्रा की भी हैं। इस दौड़ में वह नहीं देख पाए कि उनके साथ चलने के कितने ख्वाइशमंद लोग इस प्रतिस्पद्र्धा में गिरकर चोटिल हो गए।
मिश्रा के लिए उत्तराखंड के हालात अब बद से बदतर होते जा रहे हैं। वह अभी जवान हैं और दिल्ली जवानों का शहर है। दिल्ली संभवत: उनके लिए दूर नहीं है और यह उनकी महत्वाकांक्षाओं के लिए सबसे मुफीद शहर भी है।
उत्तराखंड के लोग भले ही स्वाभिमानी होने की पुरानी छवि को अभी तक भुनाते हों, किंतु किसी काम के लिए ठीक से आभार जताना और अपने काम के लिए दूसरे की सही से तारीफ करना हम लोग शायद सीख नहीं पाए। मृत्युंजय मिश्रा ये दोनों काम बहुत अच्छे से जानता है। मिश्रा ने अपने विभागों से ताल्लुक रखने वाले उच्चाधिकारियों को और मंत्री-संतरियों को अच्छे से उपकृत किया और अपने रास्ते बनाता चला गया।
मिश्रा की राह में रोड़े तब आए, जब वह राजभवन और राज्य सरकार के बीच तिब्बत समस्या की तरह डिप्लोमेटिक राजनीति के शिकार हो गए। संरक्षण देने वालों ने काफी हद तक मिश्रा के सिर से हाथ हटा लिया। आज मिश्रा भले ही उत्तराखंड के विश्वविद्यालयों को नई ऊंचाईयां देने के कितने ही दावे कर लें, किंतु उनके लिए तारीफ और सांत्वना के दो शब्द आज किसी के लफ्ज पर नहीं हैं।
सियासत में शिकार बड़ी नफासत से छांटे जाते हैं। जिन अयोग्यताओं का ठीकरा मिश्रा के सिर पर फोड़कर उनकी बलि मांगी जा रही है, उससे कहीं अधिक अयोग्यता वाले लोग दूसरे विश्वविद्यालयों में मजे से कुलसचिव की कुर्सियों पर डटे हैं।
जाहिर है कि उत्तराखंड भले ही छोटे भूभाग, छोटी सी जनसंख्या और छोटे दिलो-दिमाग का प्रदेश हो, किंतु भ्रष्टाचार के आरोपों से सने हुए विकास को गले उतारना अभी तक उत्तराखंड के लोगों को ठीक से नहीं आया है। शायद इसीलिए विकास पुरुष एनडी तिवारी को भी यहां से जाना पड़ा था तो मृत्युंजय तो इस बिसात का बहुत छोटा सा मोहरा है।