नाम बदलकर नाम कमाने के चक्कर में जीरो टोलरेंस की सरकार
उत्तराखंड का सचिवालय ऐसे-ऐसे कारनामों के लिए प्रसिद्ध रहा है कि इन पर कम से कम पांच सौ पेज की एक पुस्तक प्रकाशित हो सकती है। उत्तराखंड का सचिवालय आज भी रिश्वतखोरी की जांच कर रहा है। इस सचिवालय में अलग से केबिन बनाने की घटना और बाद में उसे तोडऩे का आदेश तब हुआ, जब यौन उत्पीडऩ के कई मामले प्रकाश में आए। यह वही सचिवालय है, जहां कई बार मादक पदार्थों और विभिन्न द्रव्यों से लाइनें चोक होती रही। आज भी कर्मचारी से लेकर अधिकारी तक यहां खुलेआम धूम्रपान करते और ताश खेलते देखे जा सकते हैं। हाल ही में आईएएस पद से इस्तीफा देने वाले उमाकांत पंवार ने बाकायदा लिखित शिकायत दी थी कि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी महिला आईएएस अफसरों को घूरते रहते हैं।
नई सरकार आने के बाद लोगों को उम्मीद जगी थी कि अब सचिवालय में विकास कार्यों पर सरकार ध्यान केंद्रित करेगी, किंतु १७ अगस्त २०१७ को प्रमुख सचिव आनंद वर्धन द्वारा हस्ताक्षरित एक पत्र उत्तराखंड के ११ विभागों में भेजा गया। जिसमें पांच महीने से उत्तराखंड सरकार की उपलब्धि की बजाय एक नई परंपरा शुरू की गई। जिस सरकार को ट्रिपल इंजन होने के नाते यह बताना चाहिए था कि उसने पांच महीनों में विकास की नई परंपरा शुरू कर दी है, कार्य संस्कृति को बदलकर विकास कार्यों को तेजी से आगे बढ़ाने का काम किया है, वह सरकार अब सचिवालय के लिए नए नियम-कायदे बना रही है।
पहले सचिवालय में आने-जाने के लिए टेढे नियम बनाने की शुरुआत से आलोचना का शिकार हो चुकी सरकार ने अब मायावती की तर्ज पर राजनीति करनी शुरू कर दी है। सरकार बनने के बाद दीनदयाल उपाध्याय गाथा का राग हो या श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम पर जगह-जगह भाषणबाजी, इससे एक कदम आगे अब सरकार ने सचिवालय के मुख्यमंत्री कार्यालय का नाम स्व. डा. एपीजे अब्दुल कलाम, मुख्य सचिव भवन का नाम नेताजी सुभाषचंद्र बोस भवन, एसबीआई भवन(पश्चिम ब्लॉक) का नाम स्व. श्री सोबन सिंह जीना भवन और एफआरडीसी भवन का नाम स्व. श्री देवेंद्र शास्त्री भवन रख दिया है। (देखिए शासनादेश की कॉपी)
भारतीय जनता पार्टी केंद्र से लेकर उत्तराखंड तक इन नामों को कैश करती रही है। इस नए नामकरण समारोह में गढ़वाल-कुमाऊं के अलावा राजपूत-ब्राहमण की परंपरागत राजनीति से भी भारतीय जनता पार्टी अपने को बाहर नहीं रख पाई।
जिस डबल इंजन की सरकार को सचिवालय की कुसंस्कृति को बदलना था, वह आज भवनों का नाम बदलकर वाहवाह लूटने का प्रयास कर रही है। देखना है कि इन नए रखे नामों से सचिवालय की कुसंस्कृति किस प्रकार समाप्त होती है।
एक जागरूक नागरिक सुरेन्द्र सिंह रावत कहते है कि ऐसे नामकरण उपयोगी नही होते।व्यवहार में इन नामों को न प्रयोग किया जाता है न याद रखा जाता है।उत्तराखण्ड के इतिहास को टटोलते तो अच्छा होता।