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विधानसभा का एक्शन : तिमला का तिमला खती अर…….

November 28, 2022
in पर्वतजन
बड़ी खबर : अधर में लटका विधानसभा के 228 कर्मचारियों का भविष्य l विधानसभा की स्पेशल अपील हुई स्वीकार
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देहरादून। यहां किसी का सत्य परेशान नहीं होता। यहां हर कालखंड का बराबर हिसाब होता है। भले ही वो 2016 के बाद का हो या 2000 से 2016 के बीच का सत्य। 

पहले पिता और अब खुद जिसकी राजनीति में बैकडोर एंट्री हुई हो, वो सत्यवान की पुत्री सत्य की देवी यदा यदा ही धर्मस्य जैसे गीता के पवित्र श्लोक का अपमान करते हुए, अपने झूठे अहंकार, अति महत्वकांक्षा में अपने अधूरे, पक्षपात भरे न्याय को आधार बना कर चौथे तल पर पहुंचना चाहती हैं। 

सत्य की देवी कहती हैं की ये लड़ाई किसी व्यक्तिगत के खिलाफ नहीं, बल्कि न्याय की लड़ाई है। हे सत्य की देवी ये अन्याय के खिलाफ कैसी लड़ाई है, जिसके दोहरे मापदंड हैं। ये भागवत गीता का कौन सा अध्याय है, जिस पर आजतक आपके और आपके दिल्ली, नोएडा, गुड़गांव वाले सलाहकारों के साथ ही आपके दाढ़ी वाले सलाहकार की ही नजर पड़ी। बाकी इस ज्ञान से आजतक अछूते हैं। भागवत करने वाले तमाम व्यास असमंजस में हैं की कैसे वो इस अद्भुत ज्ञान से अछूते रह गए।

ये 2016 से पहले वालों को लेकर आपका कौन सा प्रेम है, जिसके लिए हे देवी आप अपनी साख तक दांव पर लगाने से गुरेज नहीं कर रही हैं। वैसे आपकी मजबूरी समझ सकते हैं। आखिर कैसे पापा के सलाहकार रहे अंकल की अपनी बहन जैसी बेटी, अंकल के बेटे पर प्रहार कर सकती हैं। 

लेकिन भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण तो यही ज्ञान देते हैं की धर्मयुद्ध में सामने अपना कोई भी सखा, संबंधी खड़ा हो, शस्त्र चलाने में संकोच न करो। ये आपका कौन सलाहकार गीता का ये कौन सा गलत रूप आपको थमा कर चला गया है। जिसमें 2016 के बाद और 2016 से पहले वालों के लिए अलग अलग नियमों की व्याख्या कर गया। 

अब 2016 से पहले के वही बैकडोर वाले 132 आपको अनुभवी नजर आ रहे हैं। यदि वो भी अवैध तरीके से विधायिका के मंदिर में दाखिल हुए हैं और आपको अब अनुभवी नजर आ रहे हैं, तो साफ है की इनके मामले में आप नैनीताल में मौजूद न्याय के मंदिर को भी लगातार गुमराह कर रही हैं।

कैसे महज डेढ़ साल की तदर्थ नौकरी में नियमित हुए कर्मचारियों को बचाकर और उसी सिस्टम में छह साल नौकरी करने वालों को बाहर कर सत्य की देवी बन जाती हो। ये कार्मिक की कौन सी नियमावली आपके हाथ लग गई, जिसके नियम आपके मन मुताबिक चल रहे हैं। क्या इस मामले में उमा देवी केस लागू नहीं होता।

2016 से पहले वालों को लेकर आपकी नियत साफ है की वो आपके कलेजे के टुकड़े हैं। उनके लिए आपको धर्म, न्याय की परिभाषा भी बदलनी पड़े, तो आपको कोई गुरेज नहीं है। 

वैसे न्याय, धर्म की परिभाषा अपने मन मुताबिक बदलना आपको विरासत में मिला है। कैसे नेपाली मूल के दो लोगों को फर्जी डोमिसाइल, फर्जी मार्कशीट के आधार पर नौकरी देकर सरकारी दामाद बना दिया जाता है, ये भी इस राज्य ने देखा है। किसके कालखंड में इस देहरादून की जमीनों को मास्टर प्लान के नाम पर खुर्दबुर्द किया गया। कैसे बासमती लहलहाने वाली खेती की जमीन को बिल्डरों के लिए नीलाम किया गया। कैसे खेतों को कंक्रीट के जंगलों में तब्दील करने की जमीन तैयार की गई। कैसे आम लोगों के घरों की जमीनों को सरकारी कार्यालय भू उपयोग दिखाकर बर्बाद कर दिया गया। आजतक लोग शासन, सरकार के चक्कर काटने को मजबूर हैं।

किसके कालखंड में एक बदमीजाज नौकरशाह ने राज्य में भ्रष्टाचार की सारंगी बजाई। कौन सा शहर का एक छोटा व्यापारी रातों रात देहरादून में कंक्रीट का जंगल खड़ा करता चला गया। किस महिला का नाम देहरादून के मास्टर प्लान की मूल प्रति में ही दर्ज हो गया था। जिसे मिटाने को एमडीडीए के अफसरों को रातों रात दौड़ लगानी पड़ी। किसने टाटा की लखटकिया को उत्तराखंड पंतनगर यूएसनगर नहीं आने दिया। 

किसके राज में यूजेवीएनएल में एक इंजीनियर को निदेशक पद के इंटरव्यू में फेल होने के बाद बिना विज्ञापन जारी किए ही विभागीय पदोन्नति के अधिशासी निदेशक के पद पर सीधी नियुक्ति दे दी जाती है। जबकि अधिसासी निदेशक का कोई पद खाली ही नहीं था। इससे भी मन नहीं भरता, कुछ समय बाद वही बैकडोर से अशिसासी निदेशक बना इंजीनियर यूजेवीएनएल एमडी बनने को आवेदन करता है। इस बार एमडी नेताजी के रिश्तेदार को बनाया जाना था, तो इंटरव्यू में फेल होने के बाद भी अगले भाई को सीधे निदेशक बना दिया जाता है। जबकि उस दौरान निदेशक पद के लिए न कोई आवेदन मांगा गया था। न ही कोई इंटरव्यू हुआ। लेकिन नेताजी का मन था, तो नियम क्या होते हैं। क्योंकि धर्म की अपने मन मुताबिक परिभाषित करने का तो कॉपीराइट अगले भाई के परिवार को भगवान श्री कृष्ण देकर ही गए हैं। तो कोई भी संशोधन वो अपने मन मुताबिक कर ही सकते हैं।

उनके ही कार्यकाल में अफसर इतने बेलगाम थे की एक बाहुबली के कारनामों को मीडिया के सामने न आने से रोकने के लिए हरिद्वार रोड पर तत्कालीन पुरानी जेल का एक जेलर पत्रकारों पर लाठियां चलाने से लेकर फायरिंग तक करवा देता है। 

इतने कारनामों के बावजूद भी अगले भाई को उत्तराखंड का सबसे ईमानदार नेता कहा जाता है। यदि ये ईमानदारी की परिभाषा है, तो बेईमान कैसे होते होंगे। इसी परंपरा को उसी निष्ठा के साथ सत्य की देवी भी आगे बढ़ा रही हैं। आप में और लाला जी में क्या अंतर रह गया, मायका और ससुराल दोनों वीआईपी और खुद भी वीवीआईपी होने के बाद एक कॉटन, सिल्क का कुछ गज भर कपड़ा अपने बूते नहीं लिया गया। घर की निगरानी को चंद कैमरे तक न खरीदे गए। अपनी गाड़ी को छोड़ सरकारी वाहनों से दिल्ली से मजदूरों तक को लादने में लाज न आई। यमुना कालोनी से बसंत विहार के बीच और भी बहुत कुछ, जो फिलहाल बाद में। ऐसे में तो लाला ही भला, जो कम से कम डंके की चोट पर कहता तो है की हां खाया है।

बेहतर होता की जब उन्होंने न्याय, धर्म, राज्य के बेरोजगारों के साथ न्याय करने को गांडीव उठा ही लिया था, तो न्याय बराबर कर वो इतिहास में अपना नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज करातीं। लेकिन ये मौका वे लगातार गंवा रही हैं। उनके पास अभी भी मौका है। 

नहीं तो उन पर ये गढ़वाली कहावत, नांगी की नांगी दिखी गई, तिमला का तिमला खती गई, सटीक बैठेगी।


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