लम्बे जद्दोजहद के उपरांत भी उत्तराखंड आयुर्वेद विश्वविद्यालय की बनाई गयी कार्य समिति पूर्णतया विवादित और अपूर्ण और आगामी 12 दिसंबर को आयोजित इसकी बैठक विधायी परम्पराओं एवं नियमानुसार अवैध
प्रभारी कुलपति के रूप में अपने कार्यकाल को पूरा होने के महज 03 दिन पूर्व कुलपति की अध्यक्षता मे आयोजित की जाने वाली इस सर्वोच्च समिति की बैठक पूरी तरह से विधायी परम्पराओं और नियमानुसार सवालों के घेरे में आ गई है क्योकि कार्यवाहक कुलपति के रुप मे अपने कार्यकाल
के अंतिम दिनों में किसी भी नीतिगत निर्णय को लेने का अधिकार कुलपति को नही है जबकि यह बैठक ही इनके द्वारा अपने 06 माह के प्रभारी कुलपति और लगभग 03 माह के प्रभारी कुलसचिव के रूप में लिए गये अनेक विवादित नीतिगत निर्णयों के अनुमोदन के लिये ही आहूत की गयी है जिन्हें इन्हें लेने का अधिकार ही नहीं था और अब उसे अनुमोदित कराने का भी अधिकार नही है। क्योंकि कुलपति ही इस सर्वोच्च समिति का अध्यक्ष होता है,यह और ही दिलचस्प इस बात को लेकर हो गया है क्योकि यह समिति अभी भी अपूर्ण और विवादों के घेरे में है इसमें अतिआवश्यक एक सदस्य मुख्य न्यायाधीश माननीय उच्च न्यायालय नैनीताल द्वारा किसी भी कार्यरत/ सेवा निवृत्त न्यायाधीश को नामित करना होता है जो कि अभी तक हुआ ही नहीं है,कुलपति के द्वारा नामित किये गये दो सदस्यों का मनोनयन भी विवादों के घेरे में आ गया है क्योंकि इस कार्यसमिति के गठन की प्रक्रिया पूर्व महान कुलपति डॉ. सौदान सिंह जी ने प्रारंभ किया था जिसमें कुलपति द्वारा संतुलन बनाए रखने और समुचित विकास हेतु विश्वविद्यालय में संचालित दोनो आयुर्वेद और होमियोपैथिक चिकित्सा पद्धति से एक प्रचार्य और एक आचार्य को उनके योग्यता, अनुभव और वरीयता के आधार पर नामित किया था जिसका नोटिफिकेशन यही महान वर्तमान कुलपति जो कि तत्कालीन कुलसचिव के रूप में किया था और उसी नोटिफिकेशन के आधार पर उत्तराखंड शासन के अनुसंसा पर महामहिम राज्यपाल महोदय ने अन्य सदस्यों को अनुमोदित किया है, परंतु जब यह महाशय कुलपति के प्रभार में आये तो अपने पद का दुरुपयोग कर नियम विरुद्ध दोनो नामित सदस्यों के स्थान पर मात्र आयुर्वेद जगत से ही दो नये सदस्यों को नामित कर दिया जिसका आधार योग्यता, अनुभव, वरीयता न हो कर चाटूकारिता और वफादारी रहा है जो कि पूरी तरह से अवैध है। क्योंकि बिना किसी कारण पुराने नामित सदस्यों को बदला ही नहीं जा सकता है। क्योंकि ऐसा करने से पूरी प्रक्रिया ही अवैध हो गई। उसके लिए इस समिति के गठन हेतु नये सिरे से नोटिफिकेशन करना चाहिए, अब वर्तमान में कार्यसमिति के दोनों सदस्यों समेत विश्वविद्यालय के समस्त प्रशासनिक और तकनीकी पद आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के हो गये तो बाकी पैथियो के चिकित्सकों को तो अब विश्विद्यालय में ढोल और तबला बजाना ही बचा है ऐसे में भला अन्य पैथी का विकास और उनकी समस्याओं को रखने वाला कौन होगा।