योगेश भट्ट
एक प्रमुख समाचार पत्र में सरकार को महिमामंडित करती विज्ञापन रूपी खबरों के पन्ने में प्रकाशित एक खबर में राज्य में अनुसूचित जाति और जनजाति का प्रतिशत तक ही गलत दिया गया है।
राज्य में वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर अनुसूचित जाति का जनसंख्या प्रतिशत 18 और अनुसूचित जनजाति का जनसंख्या प्रतिशत 3 है, जबकि सरकार की विज्ञापन रूपी खबर में बड़े ही गैरजिम्मेदाराना तरीके से अनुसूचित जाति का जनसंख्या प्रतिशत 19 और अनुसूचित जनजाति का 4 प्रतिशत बताया गया है ।
बता दें कि राज्य में अनुसूचित जाति और जनजाति को उनकी जनसंख्या से एक प्रतिशत अधिक दिये जाने की व्यवस्था है, इसी क्रम में राज्य में अनुसूचित जाति का आरक्षण 19 फीसदी और अनुसूचित जनजाति का 4 फीसदी है । गलतियां और भी हैं जो यह दर्शाती हैं कि सरकार के यशोगान में प्रकाशित इन समाचारों को किसी जिम्मेदार ने पढ़ने की जरूरत महसूस नहीं की ।
आश्चर्य यह है कि यह पहला मौका भी नहीं है, इससे पहले सरकार के विज्ञापन रूपी समाचारों में तथ्यात्मक एवं संख्यात्मक गलतियां रही हैं । पहले तो इस तरह के विज्ञापन रूपी समाचारों के प्रकाशन पर ही सवाल उठता है । आखिर क्यों सरकार को ऐसे विज्ञापन रूपी समाचारों की आवश्यकता पड़ती है, जिन्हें जनता की गाड़ी कमाई लुटाकर प्रकाशित कराया जाता है ? सरकार इन विज्ञापन रूपी समाचारों से क्या साबित करना चाहती है, और क्या हासिल करना चाहती है ?
दूसरा सवाल इन्हें प्रकिशत कराने वाले सूचना विभाग पर है, जहां सरकार के अच्छे कामों का प्रचार प्रसार करने के लिए लाखों रुपए मासिक वेतन लेने वाली अफसरों और कर्मचारियों की बड़ी फौज है । कोई पूछे कि क्या काम करती है सरकार की यह फौज ? अगर सरकार वाकई अच्छा काम कर रही है तो विभाग को इस तरह की खबरों के विज्ञापन क्यों छपाने पड़ रहे हैं ? चलिए मान भी लिया जाए कि यह जरूरी है तो क्या तथ्यात्मक रूप से यह समाचार सही नहीं होने चाहिए ? इनमें प्रकाशित होने वाले आंकड़े सही नहीं होने चाहिए ? उन समाचारों का परीक्षण और उनकी प्रूफ रीडिंग नहीं होनी चाहिए ?
मुद्दा यह है कि यह सब नहीं हो रहा है तो कौन है इसका जिम्मेदार, सरकार को इसका पता लगाना चाहिए । सवाल मुख्यमंत्री की उस मीडिया टीम पर भी है, जिस पर मुख्यमंत्री हर महीने सरकार का लाखों रुपया उड़ा रहे हैं । आखिर क्या कर रही मुख्यमंत्री की यह मीडिया टीम , यह देखना उसका काम नहीं तो फिर किसका काम है ?
सरकार के एडवर्टोरियलों को देखकर तो लगता है, यह महज खानपूर्ति है और जनता के हिस्से की मोटी रकम मनमाने तरीके से लुटायी जा रही है । सरकार, वैसे तो सुशासन के दावों में ऐसी नौबत आनी ही नहीं चाहिए मगर फिर भी सरकार की एक विश्वसनीयता होती है । वह चाहे खबर में हो या विज्ञापन में, हर जगह हर हाल में बनी रही रहनी चाहिए । उसके साथ खिलवाड़ नहीं होना चाहिए, बाकी सरकार की जैसी मर्जी…