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प्रवासी पीड़ा (पार्ट-3) : एक बाप ने दिल्ली से अपने बच्चे पहाड़ की गाड़ी में बिठाए। फिर जो हुआ वह हमारा सर शर्म से नीचे कर देगा

यह कहानी एक बाप यशपाल रावत की है जो मूल रूप से पौड़ी गढ़वाल के नैनीडांडा ब्लाक में कमेडा गांव का है, और दिल्ली में नौकरी करता है।
  नौकरी के कारण खुद तो नहीं आ पाया लेकिन अपने 2 बच्चों और पत्नी को पहाड़ के लिए पहाड़  की गाड़ी में बिटा दिया। लेकिन अपने इलाके के नजदीक पहुंचने के बाद स्थानीय दुकानदारों ने उनके परिवार के साथ जो व्यवहार किया। बारिश में भीगते हुए भूखे प्यासे वे किसी तरह अपने घर पहुंच पाए। उससे वह काफी द्रवित हुआ और उसने अपनी बात रखने की अपील की। हम उनकी बात को थोड़ी बहुत व्याकरण की अशुद्धियों को ठीक करके ज्यों का त्यों रख रहे हैं। निश्चित ही यह बात हम सबके आत्म विश्लेषण के लिए भी है।

“आज मै मां बूंगी देबी के माध्यम से आप लोगों को एक जानकारी साझा कर रहा हूं। मै नौकरी की जिम्मेदारी से गांव नहीं आ पाया पर मैने अपने बच्चे कल गुड़गांव से गांव के लिए कोटद्वार डिपो वाली बस में बैठा के मै वापस आ गया। बस उनको कल शाम को 5 बजे कोटद्वार पहुंचा गया था। वहां काफी समय चैक करने में टाईम लगता है।

 तब वहां के प्रशासन ने सभी दिल्ली वालों का खाना पीना और रहने की व्यवस्था कालेज में कर रखी थी। उसके बाद सभी को अपने अपने ब्लाॅक के लिए बस की उचित व्यवस्था करके सुबह 7 बजे वहां से रवानगी कर दिया था।
 उसके बाद गाड़ी आधा घंटा रतवाढाब पर रूकी वहां पर केवल ड्राइवर कंडक्टर साथ में गयी पुलिस टीम मजे से अपना नाश्ता पानी कर रहे थे। उस मार्केट के लोगों ने दिल्ली से आए हुए सवारी के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया।
 न ही किसी को वहां बाथरूम करने दिया, न ही नलके का पानी यूज करने दिया न ही पैसों में उनको कोई सामान दिया। छोटे छोटे बच्चे थे उनको भी भूख लगी थी, पर किसी भी दुकानदार ने उन्हें सामान तो रहा दूर उनको अपने आस पास भी फटकने नही दिया।
ऐसे ही हलदूखाल बाजार में भी हुआ। मेरे बच्चों को हलदूखाल बाजार में ही उतरना था। मेरे बच्चों को बहुत भूख प्यास लगी आस थी हलदूखाल में। लेकिन वहां दुकान दारों ने भी वैसा ही किया।
 मेरे बच्चे पूरे बाजार के हर दुकान पे गये, लेकिन सभी ने अपने दूकान में आने से ही मना कर दिया। बच्चा बोला अंकल मुझे और मेरे छोटी बहन को बहुत भूख और प्यास लगी है, हमें बिस्कुट और फ्रूटी चाहिए लेकिन किसी का दिल नहीं पसीजा। बच्चों के हाथों में पैसे ऐसे ही रह गए पर किसी ने उन्हें सामान नहीं दिया।
 लास्ट में मां बच्चे अपने घर के लिए निकले। रास्ते में पानी का नलका था वहां पर भी एक सदस्य तत्पर था।
 बच्चा अपनी खाली बोतल निकाल कर पानी भरने की कोशिश करता उस से पहले ही उसे वहां से भागने के बोल दिया।
  मुझे यह दर्द भरी कहानी सुनकर बहुत अफसोस हुआ।
 गाड़ी वाले ने भी ले जाने के लिए मना कर दिया। मै कमेडा तल्ला का हूं। मेरा नाम जसपाल सिंह रावत है। अभी भी मेरे बच्चे चामसेन के रास्ते कमंदा जा रहे हैं। उसके बाद कमेडा तल्ला पहुंचेंगे।
 वहां पर भी उनको अलग रहना है। वहां पर बंद घर को खोलकर उसमें रहना है। रास्ते से सामान भी नहीं खरीद पाये।  दुकान दारों ने उन्हें सामान देना पैसों में भी उचित नहीं समझा। कहीं हमें करोना न हो जाए,  मेरी अपील है हाथ जोड़कर कृपया मेरी बात को रखा जाए।
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