जगमोहन रौतेला
दिवाली का प्रसाद देने के लिए कल 20 अक्टूबर 2017 को तारानवाड़ ( गौलापार , हल्द्वानी ) गांव में जैजा बसन्ती रौतेला के यहां गया । झ्यबौज्यू प्रेम सिंह रौतेला को गुजरे हुए साल भर हो गया है । वहां पहुँचा तो जैजा च्यूढ़े बनाने की तैयारी कर रही थी। अपनी बहू हरना के साथ । च्यूढ़े गोवर्धन पूजा के दिन तैयार किए जाते हैं और फिर अगले दिन दूतिया त्यार में द्यप्पतों व परिवार के सभी जनों व घर में आने वाले ईष्ट मित्रों को भी आशीष देने के साथ ही चढ़ाए जाते हैं।
मीडिया व बाजार धीरे-धीरे हमारी विभिन्न लोक व उसकी संस्कृतियों को निगलते जा रहे हैं। और यह इतने धीरे से दबे पांव हो रहा है कि हमें पता ही नहीं चल रहा है कि हम अपने ” लोक ” व उसकी संस्कृति को कब पीछे छोड़ कर आ गए। जब तक हमें इसका भान हो रहा है , तब तक बहुत देर हो जा रही है और हम अपनी जड़ों की ओर चाह कर भी नहीं लौट पा रहे हैं।इसका एक सबसे बड़ा कारण यह है कि तब हमें पता ही नहीं चल रहा है कि हमारी जड़ें हैं कहां ?
दीपावली के तीसरे दिन मनाए जाने वाले भैय्यादूज के सम्बंध में भी यही बात लागू होती है।
कुमाऊँ में भैय्यादूज मनाया ही नहीं जाता है । इसका दूसरा ही रूप यहां है , लेकिन भैय्यादूज कब यहां की लोक संस्कृति में घुस गया किसी को पता ही नहीं चला।
वैसे यह घुसपैठ दो-ढाई दशक से ज्यादा पुरानी नहीं है। यहां भैय्यादूज की जगह दूतिया त्यार मनाने की लोक परम्परा रही है। इसे मनाने की तैयारी कुछ दिन पहले से शुरू हो जाती है। कहीं एकादशी के दिन , कहीं धनतेरस के दिन और कहीं दीपावली के दिन शाम को तौले ( एक बर्तन ) में धान पानी में भिगाने के लिए डाल दिए जाते हैं। गौवर्धन पूजा के दिन इस धान को पानी में से निकाल लिया जाता है। उन्हें देर तक कपड़े में रखा जाता है बांध कर के। ताकि उसका सारा पानी निथर जाय। उसके दो-एक घंटे बाद उस धान को कढ़ाई में भून लिया जाता है। उसके बाद उसे गर्मागर्म ही ओखल में मूसल से कूटा जाता है
गर्म होने के कारण चावल का आकार चपटा हो जाता है और उसका भूसा भी निकल कर अलग हो जाता है। इन हल्के भूने हुए चपटे चावलों को ” च्यूड़े ” कहते हैं। ये च्यूड़े सिर आशीष स्वरूप चढ़ाने के साथ ही खाने के लिए भी बनाए जाते हैं।
दीपावली के तीसरे दिन ” दूतिया का त्यार ” कुमाऊँ में मनाया जाता है. पहले दिन तैयार च्यूड़े सिर पर चढ़ाए जाते हैं। सवेरे पूजा इत्यादि के बाद घर की सबसे सयानी महिला च्यूड़ों को सबसे पहले द्यप्पतों को चढ़ाती हैं और उसके बाद परिवार के हर सदस्य के सिर में चढ़ाती है। च्यूढ़े चढ़ाने से पहले अक्ष्यत व पीठ्यॉ लगाया जाता है . उसके बाद दूब के दो गुच्छों को दोनों हाथ में लेकर उनसे सिर में सरसों का तेल लगाया जाता है। जिसे काफी मात्रा में लगाते हैं। कई बार तो तेल सिर से बहने तक लगता है। इसे ” दूतिया की धार ” कहा जाता है। इसके बाद दोनों हाथों में च्यूढ़े लेकर जमीन में बैठे व्यक्ति के पहले पैरों, उसके बाद घुटनों , फिर कंधों और अंत में सिर में च्यूढ़े चढ़ाए जाते हैं और ऐसा तीन या पांच बार किया जाता है। ऐसा करते हुए घर की बुजुर्ग महिला निम्न आशीष वचन भी देती जाती हैं —-
” जी रया जागी रया
य दिन य मास भ्यटनें रया।
पातिक जै पौलि जया ।दुबकि जैसि जङ है जौ .
हिमाल में ह्यू छन तक , गाड़क बलु छन तक ,
घवड़ाक सींग उँण तक जी रया।
स्याव जस चतुर है जया , बाघ जस बलवान है जया , काव जस नजैर है जौ ,
आकाश जस उच्च ( सम्मान ) है जया , धरति जस तुमर नाम है जौ .
जी राया , जागि राया , फुलि जया , फलि जया , दिन ,य बार भ्यटनै रया .”
मतलब ये कि इस आशीष में उसकी समृद्धि , उन्नति , सुख , शान्ति , समाज में उसकी खूब इज्जत होनेे , उसके परिवार के जुगों-जुगों तक दुनिया में प्रसिद्ध रहने की कामना की जाती है।
परिवार की बुजुर्ग महिला के बाद दूसरे महिलाएं भी ऐसे ही आशीर्वचनों के साथ बड़ों व बच्चों के सिर में च्यूढ़े चढ़ाती हैं। च्यूढ़े आमतौर पर महिलाएँ ही चढ़ाती हैं पुरुष नहीं ! सिर में च्यूढ़े चढ़ाने का सम्बंध भाई – बहन से नहीं है। यह हर विवाहित महिला परिवार में हर एक के सिर में चढ़ाती हैं। स्थानीय लोक परम्परा में इसमें थोड़ा बहुत अंतर होना स्वाभाविक है। जो हमारे लोक को और मजबूत बनाता है।
ये च्यूढ़े परिवार के सदस्यों के अलावा गाय व बैल के सिरों में भी चढ़ाये जाते हैं। च्यूढ़े चढ़ाने से पहले उनके सींग में सरसों का तेल चुपड़ा जाता है। गले में फूलों की माला पहनाई जाती है। उसके बाद गाय व बैल के माथे पर भी पिठ्ठयां लगाया जाता है। और फिर सिर में च्यूढ़े चढ़ाए जाते हैं। यह बताता है कि हमारे लोक की परम्परा में पालतू जानवरों को भी एक मुनष्य की तरह का दर्जा दिया जाता रहा है , क्योंकि लोक का जीवन बिना पालतू जानवरों ( गाय , बैल ) के बिना अधूरा है
घर गांव में जब से मशीन से धान की कुटाई होने लगी है , तब से ओखल भी खत्म होे रहे हैं और जब ओखल ही नहीं होंगे तो च्यूढ़े कैसे बनेंगे ? अब च्यूढ़ों की जगह बाजार में मौजूद ” पोहों ” ने ले ली है। जिनमें न स्वाद है और न अपनापन। न अमा , ईजा , जैजा , काखी के हाथों की महक। जो अपनों के सिर में चढ़ाने के लिए च्यूढ़े तैयार करते समय च्यूढ़े में मिल जाया करती है। इस तथाकथित प्रगति और विकास ने हमसे हमारा लोेक व संस्कृति ही नहीं , बल्कि अपनापन भी छीन लिया है।
इस सब के बाद भी दूतिया त्यार की परम्परा अभी काफी हद तक बची हुई है। सभी मित्रों , दोस्तों व ईष्ट – मित्रों को दूतिया त्यार की भौत-भौत बधाई छू हो !