गजेंद्र रावत//
उत्तराखंड पत्रकारिता में मोमबत्ती श्रद्धांजलि का फैशन
उत्तराखंड में किसी भी पत्रकार की मौत के बाद श्रद्धांजलि का तांता लगना एक शौक सा बन गया है। जीते-जी यदि किसी के साथ खड़ा होने की थोड़ी भी जहमत उठाई जाती तो शायद आज पत्रकारों को न तो अभावों में जीने को मजबूर होना पड़ता और न ही आत्महत्या जैसा कदम उठाना पड़ता
![kamal joshi ki shav yatra](https://parvatjan.comwp-content/uploads/2017/08/kamal-joshi-ki-shav-yatra-300x199.jpg)
देहरादून में १६ जुलाई २०१७ को हरेला कार्यक्रम के दौरान देहरादून के मेयर और धर्मपुर के विधायक विनोद चमोली सहित तमाम लोग पहाड़ी ढोल की थाप पर नाच रहे थे। अगले दिन अखबारों में खबर छपी कि स्व. पत्रकार कमल जोशी की मृत्यु पर यह कार्यक्रम एक सामाजिक संस्था ने आयोजित किया था। इस कार्यक्रम में नाच-गाने के साथ कमल जोशी को तब याद किया जा रहा था, जबकि कमल जोशी तेरहवीं भी नहीं हुई थी। इस कार्यक्रम से पहले एक और घोषणा तमाम मीडिया में छपी कि अब कमल जोशी के नाम पर फोटो पत्रकारिता के लिए एक लाख रुपए का पुरस्कार भी दिया जाएगा। जीतेजी जिन कमल जोशी के साथ कोई दुख बांटने वाला नहीं था, अचानक मौत के बाद इस प्रकार की सहानुभूति और लाखों की घोषणा से अंदाजा लग सकता है कि उत्तराखंड में पत्रकारिता किस दिशा में चल रही है।
४ जुलाई २०१७ को एक बड़े जनसमूह ने स्व. पत्रकार कमल जोशी के अंतिम संस्कार में शामिल होकर यह जताने की कोशिश की कि कमल जोशी उनके हरदिल अजीज पत्रकार थे। उनके सुख-दुख के साथी थे। इससे पहले कि कमल जोशी की चिता पूरी जलती, देहरादून के प्रेस क्लब में उनकी फोटो पर माला डालकर पुष्प अर्पित करते पत्रकारों ने श्रद्धांजलि कार्यक्रम शुरू कर दिया। कमल जोशी के पत्रकारिता जीवन से लेकर उनके द्वारा पहाड़ के दर्द को कैमरे से उकेरने और उत्तराखंड के हित में काम करने पर जोरदार व्याख्यान दिए गए। श्रद्धांजलि सभा का कार्यक्रम सिर्फ देहरादून में ही नहीं हुआ, बल्कि ४ जुलाई को हल्द्वानी में उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के सभागार में ३ बजे इसी प्रकार की श्रद्धांजलि सभा आयोजित की गई।
३ जुलाई को जब कमल जोशी की मौत की खबर सबसे पहले सोशल मीडिया में आई तो मीडिया के सैकड़ों लोगों ने कमल जोशी के साथ अपनी फोटो लगाते हुए सोशल मीडिया में बताया कि कमल जोशी एक बहुत अच्छे इंसान थे और उनकी मौत से न सिर्फ उत्तराखंड को हानि हुई है, बल्कि उन्हें व्यक्तिगत रूप से भी बहुत हानि हुई है। सोशल मीडिया में उठे इस उफान को दुनियाभर के लोगों ने देखा। कमल जोशी के बारे में उस दिन कुछ भी कहने वाले लोग एक ओर उनकी मौत पर आश्चर्य व्यक्त कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर उनकी मौत के कारणों पर आश्चर्य व्यक्त कर रहे थे। जब यह बात स्पष्ट हुई कि कमल जोशी ने कोटद्वार स्थित अपने आवास पर फंदा लगाकर आत्महत्या कर दी, उसके बावजूद कई लोग उनकी मौत पर कई प्रकार के किंतु, परंतु, लेकिन जैसी बातें करते रहे।
कमल जोशी की मौत पर जिस प्रकार सैकड़ों लोगों ने उनके साथ बिताए पलों को साझा किया, यदि इनमें से चंद लोग भी वास्तव में उनके करीब होते तो शायद कमल जोशी के आत्महत्या करने की नौबत न आती। कमल जोशी को लोगों ने वर्षों से उनके द्वारा खींची गई फोटो के कारण जाना। उत्तराखंड के सबसे बेहतरीन छायाकारों में से रहे कमल जोशी अपने दिल का दर्द किसी को जीते जी नहीं बता पाए। या कहें कि उत्तराखंड में पत्रकारिता के इर्द-गिर्द एक ऐसे छद्म आवरण का घेरा है कि व्यक्ति अपने साथ चलने वाले लोगों, अपने साथ काम करने वाले लोगों तक को भी अपने दिल की बात नहीं बता पाता।
![kunwar prasoon](https://parvatjan.comwp-content/uploads/2017/08/kunwar-prasoon-195x300.jpg)
कमल जोशी की आत्महत्या के बाद उपजी सहानुभूति ज्यादा देर नहीं टिकी और न कभी इससे पहले भी किसी और की मौत पर टिक सकी। उत्तराखंड की हर गली में अखबारों और टेलीविजन चैनलों के दफ्तर इस बात की तस्दीक करते हैं कि पत्रकारिता के क्षेत्र में भले ही रोजगार या स्वरोजगार की असीम संभावनाएं उग आई हों, किंतु वास्तव में इस पेशे में जितना हैंगओवर और दिखावा है, शायद ही किसी और काम में हो।
छोटे-बड़े हर अखबार, समाचार चैनलों में काम करने वाले लोग पूरे देश-दुनिया की खबरें देश और प्रदेश में फैले भ्रष्टाचार पर दिन-रात जमकर लिखते हंै, किंतु जब उनके अपने हालात पर लिखने की बात आती है तो दो जून की रोटी उन्हें ऐसा करने से रोक देती है। पत्रकारों के हितों के लिए बनाए गए मजीठिया आयोग के बारे में आज तक लिखने की हिम्मत ये लोग कभी नहीं कर पाए। आज मजीठिया की रिपोर्ट मीडिया मालिकों के हितों में स्थानांतरित हो गई है और न्यूनतम वेतन की मांग करने वाले बड़े-बड़े पत्रकार मौन साध गए हैं।
कुकुरमुत्तों की तरह उग आए अखबारों और टीवी चैनलों में २००० रुपए से वेतन शुरू होता है और नौकरी की ज्वाइनिंग के साथ-साथ इस्तीफे पर भी हस्ताक्षर करवा दिए जाते हैं, ताकि कभी भी ऊंची आवाज में यदि किसी पत्रकार ने बात करने की कोशिश की तो उसी दिन उसका इस्तीफा मांग लिया जाए।
उत्तराखंड में दर्जनों पत्रकार संगठन हैं। अकेले देहरादून में ही एक दर्जन से ज्यादा संगठन हैं। ये संगठन अपने-अपने अनुसार पत्रकार हितों की व्याख्या करते हैं। अलग-अलग संगठनों द्वारा अलग-अलग मांग रखने से सरकारें अपने को बहुत आजाद मानती है। पिछले दिनों देहरादून में उत्तरांचल प्रेस क्लब द्वारा आयोजित कार्यक्रम में मुख्य अतिथि मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अपने वक्तव्य में पत्रकार संगठनों के आपस में सिर-फुटव्वल पर टिप्पणी की कि सारे बुद्धिजीवी एकजुट नहीं होते और उन्हें होना भी नहीं चाहिए। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत द्वारा कहे गए, ‘होना भी नहीं चाहिए’ जैसे शब्द स्पष्ट करते हैं कि सरकारें इन संगठनों में पड़ी फूट से कितनी खुश रहती है।
![manoj kandwal](https://parvatjan.comwp-content/uploads/2017/08/manoj-kandwal-264x300.jpg)
पत्रकार मनोज कंडवाल की दुर्घटना में मौत के बाद एक बार तमाम पत्रकारों द्वारा उत्तराखंड सरकार से पत्रकारों के सामुहिक बीमे की मांग की गई कि कम से कम यदि इस तरह किसी पत्रकार की मौत होती है तो उसके परिवार को बीमा की धनराशि तो मिल जाएगी! तमाम प्रयासों के बावजूद आज तक किसी भी सरकार ने पत्रकारों के सामुहिक बीमे की मांग को स्वीकार नहीं किया। सामुहिक रूप से किए गए बीमे में एक पत्रकार का २० लाख रुपए के बीमे का वार्षिक प्रीमियम बमुश्किल एक हजार रुपए होगा। राज्य सरकारें टीवी चैनलों, समाचार पत्र-पत्रिकाओं को हर वर्ष लाखों रुपए विज्ञापन के रूप में बांटते हैं, उससे आज तक कभी भी वहां काम करने वाले पत्रकारों को कोई फायदा नहीं हुआ। मनोज कंडवाल की मौत के बाद काफी दिनों तक इस बात की मांग उठती रही कि जब सैकड़ों भर्तियां सचिवालय और विधानसभा में कृपा के कारण मिल सकती हैं तो मनोज कंडवाल की पत्नी को भी वहां लगाया जा सकता है। शुरुआत में तत्कालीन मुख्यमंत्री तथा उनके मीडिया सलाहकार सुरेंद्र अग्रवाल से लेकर मुख्यमंत्री हरीश रावत तक ने खूब आश्वासन दिए, किंतु धीरे-धीरे लोग न सिर्फ मनोज कंडवाल को भूल गए, बल्कि मनोज कंडवाल के परिजनों के बारे में भी कभी किसी ने पूछने की जहमत नहीं उठाई। पत्रकार जगत के लिए इससे बड़ा आईना क्या हो सकता है कि मनोज कंडवाल की पहली बरसी पर पत्रकार संगठनों की बजाय रूलक के संस्थापक अवधेश कौशल ने अपने कार्यालय में कार्यक्रम आयोजित कराया।
९९ प्रतिशत समाचार पत्र और टीवी चैनलों के मालिक न तो उत्तराखंड के निवासी हैं, न उनका उत्तराखंड से किसी तरह का कोई वास्ता है। ये लोग अन्य प्रदेशों की भांति यहां भी एक और टेलीविजन चैनल का दफ्तर या समाचार पत्र के लिए प्रेस लगाकर सिर्फ इसलिए बैठे हैं, ताकि उनके व्यवसाय में और वृद्धि हो। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि उत्तराखंड का भला हो या न हो, उत्तराखंड को नुकसान हो या फायदा, उन्हें इन सब बातों से कोई मतलब नहीं है।
गिरीश तिवारी की मुफलिसी
तकरीबन तीन वर्ष पहले नेहरू कालोनी के एक आवास में रहने वाले पत्रकार गिरीश तिवारी की मौत के बाद जब चंद पत्रकार उनकी अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए उनके आवास पर पहुंचे, तब मालूम हुआ कि हमेशा हंसमुख दिखने वाले साफ-सुथरे कपड़े पहने काला चश्मा लगाकर सचिवालय के गलियारों में घूमने वाले और हमेशा ठहाके लगाकर हंसने वाले गिरीश तिवारी किन परिस्थितियों में जीवन यापन कर रहे थे। तब गिरीश तिवारी के घर पहुंचे लोगों ने देखा कि वो किराये के एक ऐसे मकान में किसी तरह जीवन यापन कर रहे थे, जहां मकान मालिक ने छत में जाने वाली सीढ़ी के नीचे का छोटा सा हिस्सा गिरीश तिवारी को दे रखा था। गिरीश तिवारी अविवाहित थे। वे या तो मित्रों के साथ बाहर भोजन करते थे या फिर धर्मपुर के एक छोटे से ढाबे में भोजन करते थे। कभी भी किसी ने गिरीश तिवारी की वास्तविक जिंदगी को न तो देखा और न समझा। सचिवालय में उत्तर प्रदेश के दौरान से काम करते आ रहे आईएएस अफसरों से लेकर चपरासी तक गिरीश तिवारी को जानते-पहचानते थे, किंतु गिरीश तिवारी की वास्तविक जिंदगी किन परिस्थितियों में गुजर रही थी, ये उनकी मौत के बाद ही लोगों ने जाना। गिरीश तिवारी की मौत के बाद भी इसी प्रकार की शोक सभा की गई, जैसे कमल जोशी की मौत के बाद।
![hawan kar di shradhanjali](https://parvatjan.comwp-content/uploads/2017/08/hawan-kar-di-shradhanjali-300x225.jpg)
गिरीश तिवारी और कमल जोशी की मौत से पहले एक और मौत पिथौरागढ़ से आकर लंबे समय से देहरादून में काम कर रहे चंद्रशेखर भट्ट की भी हुई। चंद्रशेखर भट्ट क्षेत्रीय पत्रकारिता के मजबूत जानकारों में से एक थे। शुरुआत में जो धार चंद्रशेखर भट्ट के पास थी, वो शायद ही उस दौर के लोगों के पास रही होगी। किंतु पिथौरागढ़ से आकर चंद्रशेखर भट्ट अपने आप को उन लोगों के अनुरूप नहीं ढाल पाए, जिनका देहरादून में पत्रकारिता के नाम पर सिक्का चल रहा था। तमाम संघर्षों के बावजूद चंद्रशेखर भट्ट न तो अपने लिए कुछ कर पाए और न अपने परिवार के लिए ही। यहां तक कि जब उनकी तबियत खराब हुई तो इंदिरेश अस्पताल में मामूली खर्च वहन करने की स्थिति तक न थी। हालात यह थे कि उनका अंतिम संस्कार भी उनके जानने वालों ने १० हजार रुपए उधार लेकर किया।
चंद्रशेखर भट्ट की मौत के बाद उनकी बेटियां, उनकी पत्नी, उनका बेटा किस हाल में जीता है, कभी किसी ने जानने की कोशिश नहीं की।
वर्ष २००६ में वरिष्ठ पत्रकार कुंवर प्रसून की इसी प्रकार अभावों में असमय मौत के बाद बड़ी-बड़ी बातें की गई। प्रसून अपने आप में इतने बड़े व्यक्तित्व थे कि कुछ लोगों ने प्रयास कर उनके बच्चों की फीस का इंतजाम किया। कुंवर प्रसून सिर्फ लेखन के लिए जाने जाते थे। उन्होंने जीवनभर पत्रकारिता को जिया और उसी में मिट गए।
कुंवर प्रसून की मौत के बाद पहले वर्ष देहरादून में उनके नाम से पत्रकारिता पुरस्कार से लेकर तमाम तरह के कार्यक्रम आयोजित हुए, किंतु यह जोश अगले वर्ष धीमा हुआ और आखिरकार खत्म हो गया। कुंवर प्रसून को करीब से जानने वाले चंद लोग अब चंबा या टिहरी में उनकी याद में उस दिन थोड़ा समय निकाल पाते हैं।
राधाकृष्ण कुकरेती
![kamal joshi ki maut par matam](https://parvatjan.comwp-content/uploads/2017/08/kamal-joshi-ki-maut-par-matam-300x169.jpg)
देश की आजादी के कुछ दिनों बाद उत्तराखंड में नया जमाना के नाम से समाचार पत्र प्रकाशित कर आखिरी सांस तक संघर्ष करने वाले राधाकृष्ण कुकरेती को जीतेजी कभी भी किसी तरह की कोई मदद नहीं मिली। इन संघर्षों का प्रतिफल सिर्फ इतना रहा कि मरने से कुछ दिन पहले सरकार ने पत्रकारों के लिए एक पेंशन योजना बनाने की बात कही।
राधाकृष्ण कुकरेती उस दौर में पत्रकारिता करते रहे, जबकि लोगों के पास खाने के लिए भी पैसे नहीं होते थे। वर्तमान पीढ़ी को यदि पूछा जाए कि राधाकृष्ण कुकरेती ने उत्तराखंड में पत्रकारिता को जीवित रखने के लिए क्या-क्या काम किए तो नई पीढ़ी के लोग उनके नाम से भी अनभिज्ञ हैं। अभावों में रहकर दम तोडऩे वाले राधाकृष्ण कुकरेती का परिवार आज भी बदहाली का जीवन जी रहा है।
वर्षों वर्षों तक पहाड़ की आवाज बुलंद करने वाले छोटे-बड़े अखबारों के माध्यम से गरीबों की आवाज बनने वाले पत्रकार नवीन नौटियाल पूरे जीवनभर अभावों में रहे। नवीन नौटियाल को भी जीतेजी कभी किसी ने न तो मदद की, न उनके किए गए कार्यों को ही मान्यता दी। उनके जीवन के आखिरी दौर में उनकी मदद करने के उद्देश्य से जरूर वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा ने एक सम्मान समारोह आयोजित कराया था। जिससे उनकी फौरी मदद हो गई थी, किंतु ऐसे कार्यक्रमों के लिए समाज आगे नहीं आता।
आधी राह के राहगीर राजेन
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वरिष्ठ पत्रकार राजेन टोडरिया कभी राज्य के सभी मुख्यमंत्रियों पर अपने प्रभाव और जनसरोकारों के लिए मुखर पत्रकार के रूप में जाने जाते थे, किंतु उनकी मृत्यु के बाद किसी भी नेता, पत्रकार या समाज के जागरूक नागरिक ने उनके परिवार का हाल जानने की कोशिश नहीं की। आज उनकी पत्नी और दो बच्चों का परिवार भी मुफलिसी में जी रहा है, लेकिन जिस समाज के सरोकारों के लिए वह चिंतित रहते थे, उस समाज ने उनके प्रति कोई चिंता या सराकोर तक नहीं रखा।
पहचान उजागर होने के डर से हम पत्रकार या उसके परिवार का नाम नहीं लिख रहे हैं, किंतु एक उदाहरण तो बड़ा घृणित है।
एक वरिष्ठ पत्रकार की मृत्यु के बाद उत्तराखंड के एक विधायक ने पत्रकार से संबंधों के चलते फौरी मदद की, किंतु विधायक का अविवाहित और बदचलन भाई एक दिन इस उपकार का प्रतिकार हासिल करने पत्रकार की विधवा के घर ही पहुंच गया। किसी तरह पत्रकार की विधवा ने खुद को उसकी पकड़ से छुड़ाया। पर्वतजन के पास इस घटना के पुख्ता सबूत हैं।
विधायक के भाई ने कई बार नाजायज फायदा उठाने की कोशिश की, किंतु विफल रहा। एक पत्रकार की मृत्यु के बाद उसके परिवार का कष्ट इस वाकये से समझ सकते हैं।
फिर सरकार की सेवा में पत्रकार
![darshan singh rawat](https://parvatjan.comwp-content/uploads/2017/08/darshan-singh-rawat-300x300.jpg)
सितंबर २०१५ में पर्वतजन ने कलम हुए हाथ नाम से एक कवर स्टोरी प्रकाशित की थी। जिसमें उत्तराखंड में पत्रकारों द्वारा भारी मजबूरी में सरकारों के सामने सरेंडर करने की स्थिति पर फोकस किया गया था। डबल इंजन की सरकार में तेजतर्रार टीवी एंकर रहे रमेश
![ramesh bhatt](https://parvatjan.comwp-content/uploads/2017/08/ramesh-bhatt-300x288.jpg)
भट्ट अब मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार बनकर सरकार की वाहवाही में लगे हैं। ये वही रमेश भट्ट हैं, जिन्हें कल तक उनकी प्रखरता के कारण जाना जाता था, किंतु आज वे सरकार के सामने बाबू बनकर फाइलें पकड़े खड़े हैं। वहीं वरिष्ठ पत्रकार दर्शन सिंह रावत जो कुछ दिन पहले तक सरकार की आंखें खोलकर जनहित में काम करने के लिए बेहतर रिपोर्टिंग करते थे, अब मीडिया कॉर्डिनेटर बनकर सरकार और मीडिया के बीच सामंजस्य का काम कर रहे हैं। मीडिया में असुरक्षित भविष्य के कारण ही आज मीडियाजन सरकारों में समाहित होने का काम कर रहे हैं।
सफेदपोशों को आईना दिखाता हंस फाउंडेशन
![bhole ji maharaj & mata mangla](https://parvatjan.comwp-content/uploads/2017/08/bhole-ji-maharaj-mata-mangla-300x156.jpg)
उत्तराखंड में पत्रकारों की समस्याओं, उनके आर्थिक, सामाजिक दायित्वों से कोसों दूर सरकार सिर्फ मीडिया मालिकों की खास बनकर रह गई है। तमाम प्रयासों के बावजूद किसी भी सरकार ने पत्रकारों के हित में निर्णय नहीं लिए, बल्कि सरकारें सिर्फ और सिर्फ मीडिया मालिकों के हित में खड़ी दिखाई दी। पत्रकारों की शादी, ब्याह, घर, दुख-बीमारी से लेकर तमाम संदर्भों में मदद करने वाले हंस फाउंडेशन ने अब अपने खर्च पर पत्रकारों के सामूहिक बीमे का निर्णय लिया है। अब हंस फाउंडेशन के सामने भी एक बड़ा संकट यह है कि वो किस संगठन के किस पत्रकार का बीमा करे और किसका न करे। संगठनों के अहंकार और अपनी नाक ऊंची दिखाने के घमंड में अब उन निरीह पत्रकारों का अहित हो रहा है, जिन्हें हंस फाउंडेशन मदद करना चाह रहा है।
मदद के लिए दौड़ते रहे रुद्रपुर से देहरादून
दिसंबर २०१५ में रुद्रपुर निवासी पत्रकार महेशचंद्र पंत की बाइक पर एक डंपर ने टक्कर मार दी। इससे वे बुरी तरह जख्मी हो गए। करीब तीन महीने तक
![mahesh chandra pant](https://parvatjan.comwp-content/uploads/2017/08/mahesh-chandra-pant-200x300.jpg)
उनका इलाज चला। परिवार का गुजर-बसर व बच्चों की पढ़ाई का एकमात्र साधन उनका लेखन कार्य ही था। अपनी पूरी बचत खर्च करने के अलावा उन्हें रिश्तेदारों से भी उधार लेना पड़ा। ऐसे में उनके परिवार के सम्मुख दो जून की रोटी तक का संकट खड़ा हो गया। इसके अलावा वे इलाज में खर्च हुए ऋण के बोझ तले दब गए। इस दौरान उन्होंने कई बार रुद्रपुर से लेकर देहरादून के कई पत्रकार संगठनों से भी गुहार लगाई, लेकिन सभी जगह से उन्हें निराशा ही हाथ लगी। मदद के लिए उन्होंने मुख्यमंत्री दरबार में भी कई बार गुहार लगाई, लेकिन वहां से भी आश्वासन के अलावा कोई मदद नहीं मिल पाई। इस तरह महेशचंद्र पंत निराश होकर रुद्रपुर लौट गए और अपने हाल पर जीने लगे। इससे पहले उनकी लगभग दो बीघा भूमि बंगाली समुदाय के लोगों ने दबंगई के बल पर कब्जा ली, किंतु उनकी इस लड़ाई में भी किसी ने कोई मदद नहीं की। वे आज भी कठिन जीवन जीने को मजबूर हैं। पत्रकारों की उपेक्षा का यह वाकया इस बात की तस्दीक करता है कि जीते जी पत्रकारों की कोई अहमियत नहीं है। बावजूद इसके दुनिया को अलविदा कहने के बाद जरूर एक-दो दिनी श्रद्धांजलि और हमदर्दी जताने का रस्मोरिवाज चलता हुआ जरूर देखा जाता है।