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बातें मैट्रो की और एक पुलिया टूटने से सौ किमी बढी दूरी

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चिड़ियापुर नेशनल हाइवे पर पुलिया क्षतिग्रस्त होने के कारण गढवाल से कुमाऊँ जाने वाले ट्रक ट्रांसपोर्ट को उत्तर प्रदेश से हो के जाना पड़ रहा है। इससे ट्रांसपोर्ट भाड़ा बढ रहा है। इससे काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। जिन वाहनों के पास नेशनल परमिट नहीं है, वह उत्तर प्रदेश का परमिट न होने के कारण कई दिनों से वहीं खड़े हैं। 

राष्ट्रीय राजमार्ग पर पुलिया टूटने से और उत्तर प्रदेश से हो के जाने में लगभग  100 किमी की दूरी बढ गयी है। इस दूरी के बढने से प्रति ट्रक रू 2500 अतिरिक्त भार पड रहा है, जिससे ट्रांसपोर्टर और उपभोक्ता दोनों को ही भारी नुकसान हो रहा है। यह मामला ट्रकों का ही नहीं है। रोडवेज की बसे भी लम्बा चक्कर लगा के जा रही है जिससे लोगों का समय और पैसे दोनों की बरबादी हो रही है। ढाई हजार एक ट्रक से अधिक लिया जा रहा है तो प्रतिदिन इस मार्ग पर 800 से अधिक चलने वाले वाहनों से कितना पैसा अधिक देकर भारी नुकसान हो रहा है,आखिर इसकी जिम्मेदारी तय करना किसका काम है!  इसके अलावा छोटे ट्रांसपोटर जिनके पास नेशनल परमिट नहीं है, वे अपने वाहनों को खड़े करने पर मजबूर हैं।
इससे छोटे ट्रांसपोर्टरों के सामने रोज़ी रोटी का संकट हो गया है।
अगर सरकारी सिस्टम चाहे तो टूटी हुई पुलिया के नीचे से ही JCB लगाकर वैकल्पिक मार्ग बना सकता है, जो महज 2 घंटे में बनकर तैयार हो सकता है। पुलिया के नीचे की भूमि सूखी है।तथा मुख्य सड़क से गहराई भी अधिक नही है। लेकिन सवाल यह है कि सोचने और कुछ करने की संवेदना ही हो जाए तो नौकरशाही की हनक तथा सरकार की सनक किस बात की रह जाएगी!
चर्चा है कि  सिर्फ कमीशन सेट न हो पाने से यह काम अटका हुआ है। सरकार विकास के बड़े-बड़े जुमले फेंकती है, सवाल यह है कि एक ओर सरकार उत्तराखंड में मेट्रो लाइन बिछाने की बात करती है तो दूसरी ओर नेशनल हाईवे की पुलिया एक महीने से टूटी पड़ी है। नौकरशाही के इसी सुस्त नजरिए के कारण उत्तराखंड के मेट्रो प्रोजेक्ट के MD जितेंद्र त्यागी इस्तीफा देकर चले गए। उन्हें भी लगा होगा कि जो एक पुलिया की मरम्मत नहीं करा सकते वह मेट्रो क्या बनाएंगे!
डोईवाला ट्रक युनियन ने राज्यपाल को ज्ञापन देकर यह माँग की है कि चिड़ियापुर मे हो रही असुविधा के लिए क़ोई वैकल्पिक मार्ग बनवाने के लिए सम्बंधित विभागों को निर्देश दिए जाएं।सवाल यह भी है कि सीएम को छोड़कर उन्हे सीधे राज्यपाल तक क्यों जाना पड़ा। जाहिर है कि कुछ तो झोल है जिसके कारण सरकारी तंत्र की जनसंवेदना सुन्न हो रखी है।
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